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बदमाशियाँ / अदनान कफ़ील दरवेश

आज याद आ रहे हैं — वो सारे यार
वो साड़ी चुहुलबाज़ियाँ, बदमाशियाँ
सुनाई पड़ रही हैं कानों में
आज भी
कुल्फ़ी वाले की घण्टियाँ
वो कुल्फ़ी, जिसे खाकर कम
लेकिन सोचकर, ज़्यादा लज्ज़त मिलती थी ।

याद आ रहा है — अब्बू मियाँ से
रोज़ डेढ़ रूपए की ख़्वाहिश करना
जिसके लिए हम दिन भर उनका इन्तज़ार करते
और शाम को जिसे पाकर वो अमीरी का अहसास
कि जिसे बयान नहीं कर सकते ।

याद आ रहें हैं — वो मदरसे के दिन
वो तपती दोपहरी
जब स्कूल से छूटने के बाद हम दीवार फान्दते थे
और उन अन्धेरी इमारतों का डरावनापन
जिसे सोचकर ही हमारी रूह काँप जाती थी
फिर भी वो हमारी हिम्मत कि रोज़ जाते थे वहाँ
और ढूँढ़ते थे अलादीन का चिराग़ ।

वो दिन भी याद हैं, जब हम रट्टा लगाते थे
अँग्रेज़ी के भाषण 15 अगस्त पे सुनाने के लिए
और हर साल भूल जाते थे कि 15 अगस्त कब आता है
और वो मासूम सवाल जो हम करते थे अम्मा से
कि — "15 अगस्त किस तारीख़ को है ?”

याद हैं वो भी दिन, जब हमने
नमाज़ पढना अभी सीखा ही था
और रोज़ मुस्तैदी से जाते थे मस्जिद.
जब हम ‘असर’ की नमाज़ कभी नहीं छोड़ते थे
और नमाज़ ख़तम होने के बाद
मग़रिब की नमाज़ के वक़्त तक रुकना याद है।

जब सबके चले जाने पर हम मस्जिद की छत से
तोड़ा करते थे कच्चे अमड़े<ref>कच्ची अम्बिया, कच्चा आम</ref>
और अक्सर अमड़े बाँटने को लेकर
लड़ जाते थे अपने दोस्तों के साथ
और मौलवी साहब के पूछने पर
कह देते थे की मस्जिद की फर्श धोने के वास्ते
हम रोज़ रुक जाते हैं इतनी देर मस्जिद में ।

शब्दार्थ
<references/>