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बदलता मौसम / शिवनारायण जौहरी 'विमल'

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पर्वतों से तराई तक बिछी
बर्फ की चादर को छू कर, पवन
ले आईं अपने साथ कांपती सर्दी
मैदानों में जहाँ करवे से निकल कर
कुनकुनी सर्दी पैर फैलाने लगी थी
बदल रहा है मौसम
चुनाबी अलाव के चारों तरफ़ बैठे
हाथ सेक रहे हैं सब लोग
झूठे सच्चे वायदों का और हीरे को
कांच कहने का बाज़ार गर्म है
कौंन सच है कौन झूठा कौन जाने।
बदल रहा है मौसम
सच और झूठ दोनों विरोधार्थी हैं
दिन और रात आग और पानी से
द्वैत की खट्टी मीठी धरोहर
बहुत पतली है बीच की रेखा
समय के साथ या परिस्थितिवश
बदल जाती हैं सच की परिभाषा से
रघुकुल की रीत निभाना नहीं आता उसे।
बदल रहा है मौसम।
सत्यमेव विजयते की सतयुगी उक्ति
(अंतत: सत्य की ही विजय होती है)
कलियुग में लागू नहीं होती
झूठ के पैर नहीं होते की उक्ति उक्ति
भी अब हाशिए में चिपक कर रह गई है।
आजकल झूठ के छै पैर होते हैं
चपल है दौड़ जाती है चारों तरफ़।
गोयबल्स के अनुसार ज़ोर से
झूठ बोलो या उसे दोहराते रहो
तो उसे सच मानने लगते हैं लोग
आजकल उसके अनुयाइयों का वर्चस्व है।
बदल रहा है मौसम
जीत हार की चुनाबी अनिश्चितता
ही जीत है हमारे लोकतंत्र की।
अपेक्षा की उपेक्षा के आधार पर
निर्णायक बनता जा रहा है देश।
बदल रहा है मौसम॥