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बदलती ज़ीस्त के साए बहुत हैं / महेश कटारे सुगम

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बदलती ज़ीस्त के साये बहुत हैं ।
हम अपने आप में उलझे बहुत हैं ।

उठे हैं सर बदलती चाहतों के,
हविस की दौड़ में अन्धे बहुत हैं ।

दिखाई दे रहे मंज़र हसीं जो,
उन्हीं के दरम्याँ धोख़े बहुत हैं ।

लिबासों के नए इस दौर में हम,
पहनकर वस्त्र भी नंगे बहुत हैं ।

दिलों में हैं कहाँ गुंजाइशें अब
यूँ कहने को सुगम रिश्ते बहुत हैं ।