भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बदलती दुनिया का भाष्य / अरुणाभ सौरभ

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:37, 24 जुलाई 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अरुणाभ सौरभ |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

किसी साज़िश के तहत
सिल जाए ज़ुबान
किसी अपराध के नाम पर
कोई और क़ैद हो जाए झूठ-मूठ में
तो परिवार के लोगो
मित्रो
साथियो
दुश्मनो
किसी भी बात पर रोना मत
यह समय रोती आँखों में लाल मिर्च रगड़ने का है
और हत्यारे हाथों से कविता लिखने का यह समय
बदलती दुनिया का भाष्य है
सूरज के गालों में फ़ेसियल करने
ब्लीच करने चन्द्रमा को पहुँच चुकी हैं क्रीम कम्पनियाँ
क़ैदख़ाने की समूची रात अपने भीतर समेटे बैठी है जनता
दिन में / दुपहरी में
अपने घोसले में माचिस की डिबिया जैसे घर में
इधर योजना और नीति पर चल रही है बहस
असली इण्डिया या असली मसाला
उधर माँग की लोच समझ नहीं पाई
अपनी प्यारी आर० बी० आई० ....