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बदलती दुनिया का भाष्य / अरुणाभ सौरभ

किसी साज़िश के तहत
सिल जाए ज़ुबान
किसी अपराध के नाम पर
कोई और क़ैद हो जाए झूठ-मूठ में
तो परिवार के लोगो
मित्रो
साथियो
दुश्मनो
किसी भी बात पर रोना मत
यह समय रोती आँखों में लाल मिर्च रगड़ने का है
और हत्यारे हाथों से कविता लिखने का यह समय
बदलती दुनिया का भाष्य है
सूरज के गालों में फ़ेसियल करने
ब्लीच करने चन्द्रमा को पहुँच चुकी हैं क्रीम कम्पनियाँ
क़ैदख़ाने की समूची रात अपने भीतर समेटे बैठी है जनता
दिन में / दुपहरी में
अपने घोसले में माचिस की डिबिया जैसे घर में
इधर योजना और नीति पर चल रही है बहस
असली इण्डिया या असली मसाला
उधर माँग की लोच समझ नहीं पाई
अपनी प्यारी आर० बी० आई० ....