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बदहवास सोये बूढ़े की कहानी / लक्ष्मीकान्त मुकुल

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ठूंठे बरगद के नीचे सोया है वह बूढ़ा
चलती है जब गर्मियों की लू
हांपफने लगता जैसे लोहसांय में
कोई चला रहा हो भांथी
कह गई थी सांझ ढलते ही उसे सोनचिरैया
कि आयेगी भिनसारे में कभी ठंढ़ी बयार
दिन चढ़ते ही आयेगी
वह इंतजार में था गहुआ लगाये पड़ा हुआ
जैसे सिला करता हो धगे से
अपने निचाट खालीपन का जाला
पनबदरा चले जा रहे थे चुपचाप
वह लटका था सूई और धगे के बीच
समूचा दिन रेतों में दम तोड़ता हुआ चुप था
सभी चुप थे बूढ़े के बारे में
सांझ की तरह लाल कणिकाएं पफैलाकर
पूरा आकाश चुप था
मां बताती थीः मेरे जन्म के चार बरस पहले ही
चला आया था वह फटेहाल किसी दोपहरी में
यहीं जमीन के एक चकले पर बिता ली थी पूरी जिंदगी
बूढ़ा चुप था
और उसके हाथ करघे की तरह चलते थे बिन रोके-टोके
निकलती थी कुछ थरथराने की आवाज
जो पसरती हुई सीवान को लांघ जाती थी
वह इंतजार था रह-रहकर खांसता हुआ
पीली सरसों और गेहूं की बालियों के बीच मेड़ों पर बैठकर
देखता रह जाता था बटोहियों को जाते हुए देसावर
बस्ती के सारे भूगोल को वह आंखों से नाप लेता था
उसके चेहरे पर तैर आता दादी की
कहानियों का लाल बरन का कठघोड़वा
अमरूद के फलों से भरा हुआ बगीचा
चमक जाती आंखों की छोर से
पेड़ों से लदी हुई नदियों की कछार
जहां वह दौड़ा करता था
लथपथ और बदहवास।