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बद्ध / अज्ञेय

बद्ध!
हृत वह शक्ति किये थी जो लड़ मरने को सन्नद्ध!
हृत इन लौह शृंखलाओं में घिर कर,
पैरों की उद्धत गति आगे ही बढऩे को तत्पर;
व्यर्थ हुआ यह आज निहत्थे हाथों ही से वार-

खंडित जो कर सकता वह जगव्यापी अत्याचार,
निष्फल इन प्राचीरों की जड़ता के आगे
आँखों की वह दृप्त पुकार कि मृत भी सहसा जागे!

बद्ध!
ओ जग की निर्बलते! मैं ने कब कुछ माँगा तुझ से।
आज शक्तियाँ मेरी ही फिर विमुख हुईं क्यों मुझ से?
मेरा साहस ही परिभव में है मेरा प्रतिद्वन्द्वी-
किस ललकार भरे स्वर में कहता है : 'बन्दी! बन्दी!'

इस घन निर्जन में एकाकी प्राण सुन रहे, स्तब्ध
हहर-हहर कर फिर-फिर आता एक प्रकम्पित शब्द-

बद्ध!

डलहौजी, 9 जून, 1934