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बनते बनते बिगड़ रहल बा, अबले बनल-बनावल बात / सूर्यदेव पाठक 'पराग'

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बनते-बनते बिगड़ रहल बा, अबले बनल-बनावल बात
आखिर परगट भइल सभत्तर, बहुत छिपल-छिपावल बात

कइसे तीर लवट के आई, छोड़ चलल जब तनल कमान
देवालो के कान रहेला, खुल जाई बतियावल बात

गलत सही के भेद छिपी ना, मिल जाई खुद ठोस सबूत
कतना नीक-जबून कहाँ ले, कतना झूठ मिलावल बात

दूर रहल हितकर चुगुलन से, जिनकर मनभावन हर बात
अपनापन के खाक मिला दी, उनकर आग लगावल बात

मन में जइसन भाव पलेला, चाहेले सब कइल बयान
भड़क उठी ज्वाला बन के, जे कतनो दबल-दबावल बात