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बनारस / नरेन्द्र पुण्डरीक

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बनारस तो मैं कई बार गया
इस बार भी गया बनारस
बनारस से अच्छा लगा मुझे सारनाथ
क्योंकि मुझे स्कूल की किताबों में
बनारस नहीं सारनाथ के बारे में बताया गया था,

इन दिनों ही मुझे पढ़ाया गया था कबीर पाठ
कबीर की छाती में रामानन्द का पाँव
आज भी आँखों में लहरतारा वैसा का वैसा है
वापसी में जब मैं लौट रहा था
रास्ते में दिखाई दिया था लहरतारा
मन में बहुत हुआ था कि
कुछ देर रुक कर बैठ जाऊँ ओैर
मिटा लूॅं मन का फेर-फार
लेकिन हार बैठा साथियों के साथ से,

मैं जाना चाहता था मगहर
वे दिखाना चाहते थे मुझे काशी विश्वनाथ
मुझे वह दिखाना चाहते थे वह मस्ज़िद
जो बाबा विश्वनाथ की पीठ में
बकौल उनके लदी पड़ रही थी
उन्हें यह मालूम नहीं था कि
मैं बाबा विश्वनाथ को बचपन से ही देख रहा था
माँ और पिता की अतृप्तता में
जो पूरी उमर इन्हीं में लगे रह कर भी
रह गये थे खाली खुक्क,

जब सब के सब इस सबमें लगे थे
मेरा मन गंगा में बने घाटों की लम्बी कतार में
पतंग की तरह घूम-घूम कर उड़ रहा था
इस समय तो मुझे सब नहीं
कछेक नाम ही याद हैं

मणिकर्णिका का नाम इसलिए याद है
जहाँ एक पूरी तरह से जल कर राख नहीं हो पाती थी कि
दूसरी आकर उसी के ऊपर धर जाती थी
मोक्ष पानें का यह ढंग देखकर
जी भीतर से ऐसा घिनघिना उठा कि
मैं भाग कर इतनी दूर खड़ा हुआ
जहाँ से घाट क्या गंगा भी न दिखाई दे,

अस्सी घाट तो इसलिए याद रह गया था कि
बचपन में किताबों में पढ़ा था कि
अस्सी घाट में गुज़रे थे बाबा तुलसी
जो सबसे पहले मेरी जबान में
ऐसे उतरे थे कि अब तक
वैसे के वैसे ही धरे हैं और
हरिश्चन्द घाट इसलिए याद रह गया था कि
दुनियां के सबसे बडे़ कफ़न खसोट के नाम पर था
तमाम चीज़ें इतिहास और परम्परा की
इसी तरह के घटियापे के कारण याद रह जाती है
जिन्हें शताब्दियों तक दुहराते चले जाते हैं हम
                    
पहली बार जब बनारस गया था तो
लगा था वाकई यह बनारस है
जहाँ हिन्दी का एक नामवर आलोचक
साठ वर्ष का हुआ था
मुझे लगा कि मुझे जाना चाहिए
न जाने पर हो सकता है कि वह
कुछ कम का ना मान लिया जाय,

मैं यह देख कर चकित था कि
साठ के नामवर सिंह की षष्ठी मनानें के लिए
सबके सब सत्तर और अस्सी के लोग शामिल है
जिन्हें शायद अब याद नहीं रह गया कि
वे कब साठ के हुए थे,

मेरे साथ बान्दा से एक पचपन साला टू इन वन गए थे
वह जब तक वहाँ रहे
अपनें अगले पाँच साल में फँसे रहे
यह ससुरा साठ साल का नशा भी अजीब होता है
किसी को कम किसी को ज़्यादा
कुछ न कुछ होता सबको है,

बनारस से तो बहुत लोग भागे और
बहुत लोग भगाए गए
जो लोग गए वे लौट कर नहीं आए बनारस
पर यह आलोचक इस मामले में
जीवट वाला तो है ही
यह जितनी बार बनारस से भगाया गया
उतनी ही बार दूने वेग से तोड़ता
बन्द सीलन भरे चौखट दरवाज़े
गजनवी की तरह आता रहा बनारस।