Last modified on 12 नवम्बर 2013, at 20:42

बना के तोड़ती है दाएरे चराग़ की लौ / हनीफ़ कैफ़ी

बना के तोड़ती है दाएरे चराग़ की लौ
बहा के ले गई मुझ को कहाँ शुऊर की रौ

बना चुका हूँ अधूरे मुजस्समे कितने
कहाँ वो नक़्श जो तकमील-ए-फ़न का हो परतव

वो मोड़ मेरे सफ़र का है नुक़्ता-ए-आग़ाज़
फ़रेब-ख़ुर्दा-ए-मंज़िल हुए जहाँ रह-रौ

लरज़ते हैं मिरी महरूम-ए-ख़्वाब आँखों में
बिखर चुके हैं जो ख़्वाब उन के मुंतशिर परतव

भटक न जाऊँ मैं तश्कीक के अंधेरों में
लरज़ रही है मिरी शम-ए-एतक़ाद की लौ

शब-ए-दराज़ का है क़िस्सा मुख़्तसर ‘कैफ़ी’
हुई सहर के उजालों में गुम चराग़ की लौ