भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बन्दर मामा (बाल कविता) / प्रदीप प्रभात

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बन्दर मामा पिन्ही पजामा,
उछली-उछली गाबै गाना।
माथां टोपी गल्ला माला,
चाल चलै छै मतवाला।
गाँधी जी रोॅ बन्दर तीन,
अलगे-अलग बजाबै बीन।
घुमी एैलै तिब्बत चीन,
बन्दर तीन्हू के करतुत जीन।
मुन्ना पहुँचै सरकस के अंदर,
कार चलैतेॅ दिखै बन्दर।
रूदल साईकिल चलाबै छै,
लोमड़ी पानी पिलाबै छै।
करूआ भालु नाचै छेलै,
सुग्गा पोथी बाँचै छेलै।
घड़ी देखी केॅ घोड़ा बोलै,
गाड़ी आबै छै लेट।
घड़ी हिलाय के बकरा बोलै,
खाली हमरोॅ छै पेट।