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बन्धु, कहें क्या तुमसे हम ख़ुद पथ भूले हैं / कांतिमोहन 'सोज़'

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कवि-मित्र रमेश रंजक की स्मृति को समर्पित जिन्हें यह गीत पसन्द था

बन्धु, कहें क्या तुमसे हम ख़ुद पथ भूले हैं
हमने भी जीवन के पन्ने रंग डाले हैं ।

सागर-भर जोश उभर आता था
दीवाना होश नज़र आता था
रंगों की उस मोहक नगरी में
सत्य विदित होता था अफ़साना
आओ वो उत्तेजक पृष्ठ ज़रा खोलें तो
अब जिन पर मकड़ी ने जाले बुन डाले हैं ।

बन्धु, कहें क्या तुमसे हम ख़ुद पथ भूले हैं
हमने भी जीवन के पन्ने रंग डाले हैं ।।

अब जब भी सर्द हवा चलती है
आँखों से आग बह निकलती है
साँसों के इन सूखे पत्तों का
मुश्किल है ऐसे में बच पाना
बन्धु, कहो नस-नस में बहती बिजली देखें
या देखें संशय के मेघ बहुत काले हैं ।

बन्धु, कहें क्या तुमसे हम ख़ुद पथ भूले हैं
हमने भी जीवन के पन्ने रंग डाले हैं ।।

ले भी लो किरणों की शहतीरें
काटो ये जंग लगी ज़ंजीरें
पशुओं के अपमानित जीवन से
बुरा नहीं इज़्ज़त से मर जाना
बन्धु, कहो डर कैसा ज़हरीले नागों से
अपने तो चेहरे से पैरों तक छाले हैं ।
बन्धु, कहें क्या तुमसे हम ख़ुद पथ भूले हैं
हमने भी जीवन के पन्ने रंग डाले हैं ।।

बन्धु, कहें क्या तुमसे हम ख़ुद पथ भूले हैं
हमने भी जीवन के पन्ने रंग डाले हैं ।।

1983