भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बरबर बरबर लाग रहति है / बोली बानी / जगदीश पीयूष

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ४ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:44, 24 मार्च 2019 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


रासन की सक्कर पी गे
सब घरहेके कोटेदार
गाड़िन ऊँख लइगवै हमते
टका सेरु सरकार

तिथि त्यौहारु मनाई की विधि-
लरिका खाँय मिठाई
गड़ु राबौ का नहीं ठेकाना
इसे सालु बिताई
पानी-पत्ता बिना दुबारा
मिलै न नातेदार

सक्कर बिना छोटकई बिटिया-
की कस चढ़ी बरात
कहा सुनी भै परधानौ ते
बिगरि चुकी है बात
दूना भाव लगाये बनिया
छूरी लिहे तयार