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बरसात है, हर शख़्स का घर डूब रहा है / विनय कुमार

बरसात है, हर शख़्स का घर डूब रहा है।
सपने बरस रहे हैं शहर डूब रहा है।

किस सिम्त से निकला था किताबों से पूछिए
पूरब में आफ़ताब मगर डूब रहा है।

सब धूप में डूबे हुए, दिल ओस में मछली
दिल डूब रहा है कि दहर डूब रहा है।

निकलेगा साफ़-सुथरा उधर लाल किले पर
सड़ती हुई जमुना में इधर डूब रहा है।

ये रेत सी बिखरी हुई हैं वक़्त की किरचें
इस रेत में साँसों का बहर डूब रहा है।

लहरों की उछालों का भरोसा नहीं रखना
तू डूब ही जायेगा अगर डूब रहा है।

सबको पता है फिर भी पूछते हैं सब सवाल-
वह डूब रहा है तो किधर डूब रहा है।

जो सोच से ख़ाली हैं सभी तैर रहे हैं
पर फ़िक्र में डूबा हुआ सर डूब रहा है।

होने में मुकम्मल इसे गुज़रेगा महीना
इस चांद से अब और न डर डूब रहा है।