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बरसात / शिवनारायण जौहरी 'विमल'

फिर आगई बरसात
प्यासी तलइयों ने
पिया ख़ूब पानी
छ्लकने लगा है कटोरा
कैसी मिली है सौगात
लो फिर आगई बरसात

झरने हुए बरगद के पेड़
नीचे तक लटकीं जटाए
नदिया नहाय रही
खोल कर लंबी लटें
दूर तक फ़ेल गईं
दुपट्टे के साथ
लो आगई बरसात

नदी किनारे की
खुरदरी दंत पंक्ति को
निगला जल राशि ने
बूढ़े दांतों की क्या बिसात
लो आगई बरसात

बिजली के नर्तन और
बादल के गर्जन ने
बहलाया मौसम के
रूठे मिज़ाज को
होने लगी द्वार द्वार
मीठी मीठी बात
लो आगई बर
जप
ऐसे में आओ प्रिए
हम तुम भी बैठ जाएँ
बाहर गौख में
पास बरखा के
तन भींगे मन भींगे
भींग जाए रात
लो आगई बरसात॥
श्री शिवनारायण जौहरी विमल