भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बरसो हे अंबर के दानी / गुलाब खंडेलवाल

Kavita Kosh से
Vibhajhalani (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:20, 11 मई 2012 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


बरसो हे अंबर के दानी
तुम बरसो तो जीवन बरसे, सरसें तरसे प्राणी

उथलें ताल, नदी-नद उमड़ें, टपके छप्पर-छानी
सूखे पेड़ हरे हों फिर से, पाकर नयी जवानी

तोरण-बंदनवार सजाकर भूमि करे अगवानी
मन भीजे, घर-आँगन भीजे, भीजे चूनर धानी

कभी लुटाते आओ मोती, कभी बहाते पानी
कभी बरस लो आंसू बनकर, रोये राधा रानी

नाचा किया मोर जंगल में, प्रीति किसी ने जानी!
अब जानी जब घर-घर गूँजी 'पिहू-पिहू' की वाणी

झूम-झूम, झुक-झुक कर बरसो, खूब करो मनमानी
फिर लहरों पर चले उछलती, मेरी नाव पुरानी

बरसो हे अंबर के दानी!
तुम बरसो तो जीवन बरसे, सरसें तरसे प्राणी