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बर्फ़ पिघलने के बाद भी / रणजीत

कैसे फिराते हो तुम मेरे शरीर पर अपनी अँगुलियाँ, प्राण !
कौन सा जादू भरा है इनमें
कि कस-कस जाते हैं
मेरे शरीर के सितार की सारी नसों के तार ।

थिरक उठता है
मेरी नसों में शताब्दियों से सोया हुआ कोई आदिम संगीत
समन्दर की अदम्य लहरों की तरह
मंत्रमुग्ध-सा तुम्हारी अँगुलियों के इशारों पर
और जाग-जाग उठती हैं
मेरे लहू की अथाह गहराइयों में बेहोश
प्रागैतिहासिक युग की हज़ारों कविताएँ ।

कौनसा दर्द,
कौनसी आग भरी है तुम्हारी इन अँगुलियों में प्राण !
जो सैकड़ों रेगिस्तानों की व्याकुल प्यास
मेरे रोम-रोम में रख जाती है
कि जब मेरे अस्तित्व की जड़ रूप-रेखाएँ
चरमसुख के तरल बेसुध क्षणों में घुलने लगती हैं
और मैं तुम्हारी बाँहों की अभय देती हुई शाख़ाओं में
अपनी गरदन झुलाए हुए
एक अलसाई हुई लता की तरह खो जाती हूँ

तब भी मुझे लगता है:
कि अनलाँघी घाटियों और पहाड़ों की क्वाँरी बर्फ़ पर पड़े
पहले पद-चिन्हों की तरह
सदियों तक मौन सहती रहूँगी अपने वक्ष पर
संजो कर रक्खूँगी
तुम्हारी अँगुलियों से लिखे इन घावों को
बर्फ़ के पिघल जाने के बाद भी ।