Last modified on 28 मार्च 2011, at 19:05

बसंती हवा / महेन्द्र भटनागर

तन को
छूती गुज़री
जो मतवाली युवा हवा
इतनी अच्छी
पहले कभी
न, सचमुच, मुझे लगी !

मन को
ठंडक पहुँचाती गुज़री
जो मदहोश हवा
ऐसी मोहक
पहले कभी
न, सचमुच, मुझे लगी !

बिलकुल अपनी सगी-सगी,
बेहद.... बेहद प्यार पगी,
ठगने आयी थी; स्वयं ठगी !

लिपट-लिपट कर
बाहों - बाहों झूली,
सिहर-सिहर कर
झूमी,
सुधबुध भूली !

वस्त्रों से खेली,
केशों से खेली,
अंग - अंग से खेली !
ईश्वर जाने !
अल्हड़पन में
कितनी मदगंधा ले ली !