भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बसंत-खंड / मलिक मोहम्मद जायसी

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:41, 28 मार्च 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुखपृष्ठ: पद्मावत / मलिक मोहम्मद जायसी


दैऊ देउ कै सो ऋतु गँवाई । सिरी-पंचमी पहुँची आई ॥
भएउ हुलास नवल ऋतु माहाँ । खिन न सोहाइ धूप औ छाहाँ ॥
पदमावति सब सखी हँकारी । जावत सिंघलदीप कै बारी ॥
आजु बसंत नवल ऋतुराजा । पंचमि होइ, जगत सब साजा ॥
नवल सिंगार बनस्पति कीन्हा । सीस परासहि सेंदुर दीन्हा ॥
बिगसि फूल फूले बहु बासा । भौंर आइ लुबुधे चहुँ पासा ॥
पियर-पात -दुख झरे निपाते । सुख पल्लव उपने होइ राते ॥

अवधि आइ सो पूजी जो हींछा मन कीन्ह ।
चलहु देवगढ गोहने, चहहुँ सो पूजा दीन्ह ॥1॥

फिरी आन ऋतु-बाजन बाजे । ओ सिंगार बारिन्ह सब साजे ॥
कवँल-कली पदमावति रानी । होइ मालति जानौं बिगसानी ॥
तारा-मँडल पहिरि भल चोला । भरे सीस सब नखत अमोला ॥
सखी कुमोद सहस दस संगा । सबै सुगंध चढाए अंगा ॥
सब राजा रायन्ह कै बारी । बरन बरन पहिरे सब सारी ॥
सबै सुरूप, पदमिनी जाती । पान, फूल सेंदुर सब राती ॥
करहिं किलोल सुरंग-रँगीली । औ चोवा चंदन सब गीली ॥

चहुँ दिसि रही सो बासना फुलवारी अस फूलि ।
वै बसंत सौं भूलीं, गा बसंत उन्ह भूलि ॥2॥

भै आहा पदमावति चली छत्तिस कुरि भइँ गोहन भली ॥
भइँ गोरी सँग पहिरि पटोरा । बाम्हनि ठाँव सहस अँग मोरा ॥
अगरवारि गज गौन करेई । बैसिनि पावँ हंसगति देई ॥
चंदेलिनि ठमकहिं पगु धारा । चली चौहानि, होइ झनकारा ॥
चली सोनारि सोहाग सोहाती । औ कलवारि पेम-मधु-माती ॥
बानिनि चली सेंदुर दिए माँगा । कयथिनि चली समाइँ न आँगा ॥
पटइनि पहिरि सुरँग-तन चोला । औ बरइनि मुख खात तमोला ॥

चलीं पउनि सब गोहने फूल डार लेइ हाथ ।
बिस्वनाथ कै पूजा , पदमावति के साथ ॥3॥

कवँल सहाय चलीं फुलवारी । फर फूलन सब करहिं धमारी ॥
आपु आपु महँ करहिं जोहारू । यह बसंत सब कर तिवहारू ॥
चहै मनोरा झूमक होई । फर औ फूल लिएउ सब कोई ॥
फागु खेलि पुनि दाहब होरी । सैंतब खेह, उडाउब झोरी ॥
आजु साज पुनि दिवस न दूजा । खेलि बसंत लेहु कै पूजा ॥
भा आयसु पदमावति केरा । बहुरि न आइ करब हम फेरा ॥
तस हम कहँ होइहि रखवारी । पुनि हम कहाँ, कहाँ यह बारी ॥

पुनि रे चलब घर आपने पूजि बिसेसर-देव ।
जेहि काहुहि होइ खेलना आजु खेलि हँसि लेव ॥4॥

काहू गही आँब कै डारा । काहू जाँबु बिरह अति झारा ॥
कोइ नारँग कोइ झाड चिरौंजी । कोइ कटहर, बडहर, कोइ न्यौजी ॥
कोइ दारिउँ कोइ दाख औ खीरी । कोइ सदाफर, तुरँज जँभीरी ॥
कोइ जायफर, लौंग, सुपारी । कोइ नरियर, कोइ गुवा, छोहारी ॥
कोइ बिजौंर, करौंदा-जूरी । कोइ अमिली, कोइ महुअ, खजूरी ॥
काहू हरफारेवरि कसौंदा । कोइ अँवरा, कोइ राय-करौंदा ॥
काहू गही केरा कै घौरी । काहू हाथ परी निंबकौरी ॥

काहू पाई णीयरे, कोउ गए किछु दूरि ।
काहू खेल भएउ बिष, काहू अमृत-मूरि ॥5॥

पुनि बीनहिं सब फूल सहेली । खोजहिं आस-पास सब बेली ॥
कोइ केवडा, कोइ चंप नेवारी । कोइ केतकि मालति फुलवारी ॥
कोइ सदबरग, कुंद, कोइ करना । कोइ चमेलि, नागेसर बरना ॥
कोइ मौलसिरि, पुहुप बकौरी । कोई रूपमंजरी गौरी ॥
कोइ सिंगारहार तेहि पाहाँ । कोइ सेवती, कदम के छाहाँ ॥
कोइ चंदन फूलहिं जनु फूली । कोइ अजान-बीरो तर भूली ॥

(कोइ) फूल पाव, कोइ पाती, जेहि के हाथ जो आँट ॥
(कोइ) हारचीर अरुझाना, जहाँ छुवै तहँ काँट ॥6॥

फर फूलन्ह सब डार ओढाई । झुंड बाँधि कै पंचम गाई ॥
बाजहिं ढोल दुंदुभी भेरी । मादर, तूर, झाँझ चहु फेरी ॥
सिंगि संख, डफ बाजन बाजे । बंसी, महुअर सुरसँग साजे ॥
और कहिय जो बाजन भले । भाँति भाँति सब बाजत चले ॥
रथहिं चढी सब रूप-सोहाई । लेइ बसंत मठ-मँडप सिधाई ॥
नवल बसंत; नवल सब बारी । सेंदुर बुक्का होइ धमारी ॥
खिनहिं चलहिं; खिन चाँचरि होई । नाच कूद भूला सब कोई ॥

सेंदुर-खेह उडा अस, गगन भएउ सब रात ।
राती सगरिउ धरती, राते बिरिछन्ह पात ॥7॥

एहिं बिधि खेलति सिंघलरानी । महादेव-मढ जाइ तुलानी ॥
सकल देवता देखै लागे । दिस्टि पाप सब ततछन भागै ॥
एइ कबिलास इंद्र कै अछरी । की कहुँ तें आईं परमेसरी ॥
कोई कहै पदमिनी आईं । कोइ कहै ससि नखत तराईं ॥
कोई कहै फूली फुलवारी । फूल ऐसि देखहु सब बारी ॥
एक सुरूप औ सुंदर सारी । जानहु दिया सकल महि बारी ॥
मुरुछि परै जोई मुख जोहै । जानहु मिरिग दियारहि मोहै ॥

कोई परा भौंर होइ, बास लीन्ह जनु चाँप ।
कोइ पतंग भा दीपक, कोइ अधजर तन काँप ॥8॥

पदमावति गै देव-दुवारा । भीतर मँडप कीन्ह पैसारा ॥
देवहि संसै भा जिउ केरा । भागौं केहि दिसि मंडप घेरा ॥
एक जोहार कीन्ह औ दूजा । तिसरे आइ चढाएसि पूजा ॥
फर फूलन्ह सब मँडप भरावा । चंदन अगर देव नहवावा ॥
लेइ सेंदुर आगे भै खरी । परसि देव पुनि पायन्ह परी ॥
`और सहेली सबै बियाहीं । मो कहँ देव ! कतहुँ बर नाहीं ॥
हौं निरगुन जेइ कीन्ह न सेवा । गुनि निरगुनि दाता तुम देवा ॥

बर सौं जोग मोहि मेरवहु, कलस जाति हौं मानि ।
जेहि दिन हींछा पूजै बेगि चढावहुँ आनि ॥9॥

हींछि हींछि बिनवा जस जानी । पुनि कर जोरि ठाडि भइ रानी ॥
उतरु को देइ, देव मरि गएउ । सबत अकूत मँडप महँ भएउ ॥
काटि पवारा जैस परेवा । सोएव ईस, और को देवा ॥
भा बिनु जिउ नहिं आवत ओझा । बिष भइ पूरि, काल भा गोझा ॥
जो देखै जनु बिसहर-डसा । देखि चरित पदमावति हँसा ॥
भल हम आइ मनावा देवा । गा जनु सोइ, को मानै सेवा ? ॥
कौ हींछा पूरै, दुख खोवा । जेहि मानै आए सोइ सोवा ॥

जेहि धरि सखी उठावहिं, सीस विकल नहिं डोल ।
धर कोइ जीव न जानौं, मुख रे बकत कुबोल ॥10॥

ततखन एक सखी बिहँसानी । कौतुक आइ न देखहु रानी ॥
पुरुब द्वार मढ जोगी छाए । न जनौं कौन देस तें आए ॥
जनु उन्ह जोग तंत तन खेला । सिद्ध होइ निसरे सब चेला ॥
उन्ह महँ एक गुरू जो कहावा । जनु गुड देइ काहू बौरावा ॥
कुँवर बतीसौ लच्छन राता । दसएँ लछन कहै एक बाता ॥
जानौं आहि गोपिचंद जोगी । की सो आहि भरथरी वियोगी ॥
वै पिंगला गए कजरी-आरन । ए सिंघल आए केहि कारन ?॥

यह मूरति,यह मुद्रा, हम न देख अवधूत ।
जानौं होहिं न जोगी कोइ राजा कर पूत ॥11॥

सुनि सो बात रानी रथ चढी । कहँ अस जोगी देखौं मढी ॥
लेइ सँग सखी कीन्ह तहँ फेरा । जोगिन्ह आइ अपछरन्ह घेरा ॥
नयन कचोर पेम-पद भरे । भइ सुदिस्टि जोगी सहुँ टरे ॥
जोगी दिस्टि दिस्टि सौं लीन्हा । नैन रोपि नैनहिं जिउ दीन्हा ॥
जेहि मद चढा परा तेहि पाले । सुधि न रही ओहि एक पियाले ॥
परा माति गोरख कर चेला । जिउ तन छाँडि सरग कहँ खेला ॥
किंगरी गहे जो हुत बैरागी । मरतिहु बार उहै धुनि लागी ॥

जेहि धंधा जाकर मन लागै सपनेहु सूझ सो धंध ।
तेहि कारन तपसी तप साधहिं, करहिं पेम मन बंध ॥12॥

पदमावति जस सुना बखानू । सहस-करा देखेसि तस भानू ॥
मेलेसि चंदन मकु खिन जागा । अधिकौ सूत, सीर तन लागा ॥
तब चंदन आखर हिय लिखे । भीख लेइ तुइ जोग न सिखे ॥
घरी आइ तब गा तूँ सोई । कैसे भुगुति परापति होई ?॥
अब जौं सूर अहौ ससि राता । आएउ चढि सो गगन पुनि साता ॥
लिखि कै बात सखिन सौं कही । इहै ठाँव हौं बारति रही ॥
परगट होहुँ न होइ अस भंगू । जगत या कर होइ पतंगू ॥

जा सहुँ हौं चख हेरौं सोइ ठाँव जिउ देइ ।
एहि दुख कतहुँ न निसरौं, को हत्या असि लेइ ?॥13॥

कीन्ह पयान सबन्ह रथ हाँका । परबत छाँडि सिंगलगढ ताका ॥
बलि भए सबै देवता बली । हात्यारि हत्या लेइ चली ॥
को अस हितू मुए गह बाहीं । जौं पै जिउ अपने घट नाहीं ॥
जौ लहि जिउ आपन सब कोई । बिनु जिउ कोइ न आपन होई ॥
भाइ बंधु औ मीत पियारा । बिनु जिउ घरी न राखै पारा ॥
बिनु जिउ पिंड छार कर कूरा । छार मिलावै सौ हित पूरा ॥
तेहि जिउ बिनु अब मरि भा राजा । को उठि बैठि गरब सौं गाजा ॥

परी कथा भुइँ लोटे, कहाँ रे जिउ बलि भीउँ ।
को उठाइ बैठारै बाज पियारे जीव ॥14॥

पदमावति सो मँदिर पईठी । हँसत सिंघासन जाइ बईठी ॥
निसि सूती सुनि कथा बिहारी । भा बिहान कह सखी हँकारी ॥
देव पूजि जस आइउँ काली । सपन एक निसि देखिउँ, आली ॥
जनु ससि उदय पुरुब दिसि लीन्हा । ओ रवि उदय पछिउँ दिसि कीन्हा ॥
पुनि चलि सूर चाँद पहँ आवा । चाँद सुरुज दुहुँ भएउ मेरावा ॥
दिन औ राति भए जनु एका । राम आइ रावन-गढ छेकाँ ॥
तस किछु कहा न जाइ निखेधा । अरजुन-बान राहु गा बेधा ॥

जानहु लंक सब लूटी, हनुवँ बिधंसी बारि ।
जागि उठिउँ अस देखत, सखि! कहु सपन बिचारि ॥15॥

सखी सो बोली सपन-बिचारू । काल्हि जो गइहुँ देव के बारू ॥
पूजि मनाइहुँ बहुतै भाँती । परसन आइ भए तुम्ह राती ॥
सूरुज पुरुष चाँद तुम रानी । अस वर दैउ मेरावै आनी ॥
पच्छिउँ खंड कर राजा कोई । सो आवा बर तुम्ह कहँ होई ॥
किछु पुनि जूझ लागि तुम्ह रामा । रावन सौं होइहि सँगरामा ॥
चाँद सुरुज सौं होइ बियाहू । बारि बिधंसब बेधब राहू ॥
जस ऊषा कहँ अनिरुध मिला । मेटि न जाइ लिखा पुरबिला ॥

सुख सोहाग जो तुम्ह कहँ पान फूल रस भोग ।
आजु काल्हि भा चाहै, अस सपने क सँजोग ॥16॥


(1) देउ देउ कै = किसी प्रकार से, आसरा देखते देखते । हँकारा = बुलाया । बारी =कुमारियाँ । गोहने =साथ में, सेवा में ।

(2) आन = राजा की आज्ञा, डौंडी । होइ मालति = श्वेत हास द्वारा मालती के समान होकर । तारा-मंडल = एक वस्त्र का नाम, चाँद तारा । कुमोद =कुमुदिनी । आहा = वाह वाह, धन्य धन्य । छत्तिस कुरि = क्षत्रियों के छत्तीसों कुलों की । बौसिनि =बैस क्षत्रियों की स्त्रियाँ । बानिनि = बनियाइन । पउनि =पानेवाली, आश्रित, पौनी परजा । डार =डाला ।

(4) धमारि = होली की क्रीडा । जोहार =प्रणाम आदि । मनोरा झूमक = एक प्रकार के गीत जिसे स्त्रियाँ झुँड बाँधकर गाती हैं; इसके प्रत्येक पद में "मनोरा झूमक हो" यह वाक्य आता है । सैंतब = समेट कर इकट्ठा करेंगी ।

(5) जाँबु...झारा = जामुन जो विरह की ज्वाला से झुलसी सी दिखाई देती है । न्योजी = चिलगोजा । खीरी = खिरनी । गुवा =गुवाक, दक्खिनि सुपारी ।

(6) कूजा = कुब्जक , सफेदजंगली गुलाब । गौरी =श्वेत मल्लिका । अजानबीरो = एक बडा पेड जिसके संबंध में कहा जाता है कि उसके नीचे जाने से आदमी को सुध-बुध भूल जाती है । पंचम = पंचम स्वर में । मादर = मर्दल, एक प्रकार का मृदंग ।

(8) जाइ तुलानी = जा पहुँची । दियारा = लुक जो गीले कछारों में दिखाई पडता है; अथवा मृगतृष्णा । चाँप = चंपा, चंपे की महक भौंरा नहीं सह सकता ।

(9) एक...दूजा = दो बार प्रणाम किया

(10) हींछि =इच्छा करके । अकूत = परोक्ष, आकास-वाणी । ओझा = उपाध्याय, पुजारी । पूरि =पूरी । गोझा = एक पकवान, पिराक । खोवा = खोव । धर =शरीर ।

(11) तंत = तत्त्व दसएँ लछन = योगियों के बत्तीस लक्षणों में दसवाँ लक्षण `सत्य' है । पिंगला = पिंगला नाडी साधने के लिये अथवा पिंगला नाम की अपनी रानी के कारण । कजरी आरन = कदलीबन ।

(12) कचोर = कटोरा । जोगी सहुँ = जोगी के सामने, जोगी की ओर । नैन रोपि...दीन्हा =आँखों में ही पद्मावती के नेत्रों के मद को लेकर बेसुध हो गया ।

(13) मकु = कदाचित् । सूत = सोया । सीर = शीतल, ठंडा । आखर =अक्षर । ठाँव = अवसर, मौका । बारति रही = बचाती रही । भगू =रंग में भंग, उपद्रव ।

(14) ताका =उस ओर बढा। मरि भा = मर गया, मर चुका । बलि भीउँ = बलि और भीम कहलाने वाला । बाज = बिना, बगैर, छोडकर, ।

(15) बिहार = बिहार या सैर की । मेरावा = मिलन । निखेधा = वह ऐसी निषिद्ध या बुरी बात है । राहु =रोहू मछली । राहु गा बेधा = मत्स्यबेध हुआ ।

(16) जूझ ...रामा = हे बाला ! तुम्हारे लिये राम कुछ लडेंगे (राम =रत्नसेन, रावण = गंधर्वसेन)। बारि बिधंसब =संभोग के समय श्रंगार के अस्तव्यस्त होने का संकेत ।बगीचा पुरबिला = पूर्व जन्म का । संजोग = फल या व्यवस्था ।