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बसंत की इस दोहपर में / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल

जानती थीं तुम वर्षों पहले से
और मान भी लिया
आज बसंत की इस दोपहर में
काँप रहाथा जब
तुम्हारा हाथ मेरे हाथ में
काँप रहा था जब
तुम्हारा गात मेरे गात में
कैसे संप्रेषित हुआ
और रहा जिंदा वो क्षण
समय भी जिसे मिटा न पाया
ढक न पायी धूल भी
चमकता रहा मेरा पहला प्रणय-निवेदन
हमेशा से तुम्हारे हृदय में
चाहे खो गयी थीं तुम
कुछ समय के लिए
कोई हँसी, कोई मुसकराहट
कोई आँखों की तरलता
कभी-कभी जुगनू की तरह
झिलमिलाती थी
पर रात बहुत लंबी न थी
यादों की भीड़ में भी
हमेशा तुम नजर आती थीं
क्या नाम दोगी इस रिश्ते को?
क्या जरूरी है कोई नाम देना?
अपने-अपने पथ पर मिलेंगे
जैसे पाया है तुम्हें आज
बसंत की इस दोपहर में।