Last modified on 29 मार्च 2014, at 08:27

बस इक ख़ता मुसलसल सज़ा अभी तक है / रईस सिद्दीक़ी

बस इक ख़ता मुसलसल सज़ा अभी तक है
मिरे ख़िलाफ़ मिरा आईना अभी तक है

सभी चराग़ अंधेरों से मिल गए लेकिन
हरीफ़-ए-मौज-ए-हवा इक दिया अभी तक है

मिटा सके न उसे हादसों के दरिया भी
वो एक नाम जो दिल पर लिखा अभी तक है

गिरी है मेरी दस्तार ग़म हुआ लेकिन
ये शुक्र करता हूँ बंद-ए-क़बा अभी तक है

नज़र उठा के कहा मय-कदे में साक़ी ने
वो कौन है जो यहाँ पारसा अभी तक है

न जाने कौन से सदमों का शोर था इस में
गुज़र चुका वो इधर से सदा अभी तक है