Last modified on 1 फ़रवरी 2017, at 22:41

बहता है बन प्राण प्रिये / श्वेता राय

धरा-गगन में प्रेम गूँजता, सुमधुर बन के गान प्रिये।
मन से मन को जोड़ करे जो जगती से अनजान प्रिये।

पावस की रिमझिम बूंदों से, बहता सरिता में कलकल।
निर्झर के झर झर में घुल कर, छलके है ये छल छल छल।
बढ़ता जाता नित प्रतिदिन ये, निज से प्रिय के आनन तक,
भावों के इस प्रबल वेग से, मच जाती मन में हलचल।

पात डाल तरु लता तृणों में, बहता है बन प्राण प्रिये।
धरा गगन में प्रेम गूँजता, सुमधुर बन कर गान प्रिये।

प्रीत अधर जब छू जाते तब, चमके तन बन कर सोना।
हुलसित होती हिय की धरती महके मन का हर कोना।
दृग गागर सागर छलकाता, फूलों से ले के मधु जल,
प्यारा लगता है फिर जग में, चैन रैन का भी खोना।

लघुता को भी अमर करे जो, ऐसा ये वरदान प्रिये।
धरा गगन में प्रेम गूँजता, सुमधुर बन कर गान प्रिये।

प्रीत रीत में डूबी दुनिया,लगती है वैसी प्यारी।
घने तिमिर को हर लेती है, जैसे किरणें उजियारी।
मधुर मिलन से पुष्पित होती,मन उपवन की हर डाली,
गंगा मीरा राधा तुलसी, प्रेम सुधा की है क्यारी,

कान्हा की बंसी में बसता, बन भावों की खान प्रिये।
धरा गगन में प्रेम गूँजता, सुमधुर बन कर गान प्रिये।