भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बहिनीदेसे / कुमार वीरेन्द्र

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:33, 3 नवम्बर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार वीरेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कवन तो दिशा से आते, कवन तो दिशा चले जाते

लेकिन जब आते
लोग दूर से ही हाथ जोड़े खड़े हो जाते
गाय-बैल भी एक नज़र देख चभकने लगते नाद में; कुकुर भौंकते नहीं, पास आ कुँईं
कुँईं करते, जइसे पूछते, 'बड़े दिन बाद लउटे'; हालाँकि उन्हें कबहुँ, कौर खिलाते नहीं
देखा कि वे किसी के दुआर ठहरते ही नहीं थे, मुन्हार होते क़स्बे के
धर्मशाला में लौट जाते; हाँ जाते बखत, गाय-बैल
कुकुरों के लिए बिन ख़रीदे दे जाते
पुड़िया में, जो लाए
होते बेचने

पूछता, 'ई का है ?'; कहते, 'हींग', अउ मुस्कुरा देते

उनकी मुस्कुराहट में
वही गन्ध होती जो हींग में; तीक्ष्ण होकर भी कितनी
अपनी; कबहुँ सर पर हाथ फेरते, मुझे अपनी देह हींग ही हींग लगती; जब पूछता, 'ई धोकरिया में
खाली हींगे है का ?', हाँ में मूँड़ी हिलाते, मैं इत्मीनान हो जाता, ई कवनो साधु बाबा नहीं, बस, ऐसे
ही धोती-कुर्ता पहने, कान्धे पर धोकरी, हाथ में बकुली; आश्चर्य तब होता, उनके
दिखने से पहिले ही कइसे तो हींग की गन्ध, चहुँप जाती गाँव में
जो बधार में भी होते, लौट आते दुआरे, और
एक-भर, दु-भर कीन ही लेते
ई भी देखता

कई, जो नहीं कीन पाते, उधार भी नाहीं माँग पाते

पूछता, आजी बताती
'हींग तो सोना, बेटा; सब कइसे ख़रीदें'; तब भी कवन
माटी के थे हींगवाले, जिसके घर आई नई बहुरिया, पुड़िया में तनि हींग भेजवा देते, ऊ ई ना समझे
उसके बाप ने ग़रीब घरे बियाहा; आजी न बताती कइसे जानता, 'सोना में भी सोनवा रे हींग'; तबहुँ
कभी उन्हें किसी ने लूट लिया, ऐसा नहीं सुना, जबकि पैदल ही इस गाँव उस गाँव
होते, मुन्हारे लौटते क़स्बे; उन्हें जब भी देखा, गोड़े-गोड़ चलते देखा
एक दिन पूछा, बोले, 'कैसे थकेंगे जी, हींग है न जी
तनि खाते ही फुर्ती'; फिर जाना
हींग सोना काहे

माघे कचरी-गादा के दाल में ही नहीं, बढ़ाती सुवाद

केहू का दुखे पेट, हो खाँसी
उल्टी, कुछुओ अउर, करती जादू; वे हर साल जाड़ा
में आते, और जिन्होंने दे दिया पइसा ठीक, नहीं तो एगो पर्ची थमा बही में लिख सँच लेते, जिसे
अगले साल वसूलते; वे जब आते मैं थोड़ा और बड़ा हो जाता; एक बेर सोचा, कवन ई हींगवाले
जो कवन तो दिशा से आते हैं, कवन तो दिशा को चले जाते हैं, साल में एके बार
दीखते हैं; केहू कहता, 'काबुल से आवत हैं', केहू कहता, 'बलूची हैं'
केहू कश्मीरी तो केहू नेपाली कहता; लेकिन
आजी सबसे अलग, अछोर
देखते बताती

'ई भइयादेस के रहिबासी हैं, बेटा; जो बहिनीदेसे

चले आते हैं, बेचने हींग !'