भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बहुत कुछ / नन्दल हितैषी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:58, 2 मई 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

.... हाँ
बहुत कुछ सीखा उसने
अपने बाप - दादों से.
मसलन ’मठन्ने’ की पकड़
छेनियों की बारीकी
... और उतार चढ़ाव.

हाँ!
बहुत कुछ सीखा उसने
अपने पेशे से
अपनी साधना और लगन से.
मसलन
कच्चे पक्के पत्थरों की पहचान
उसकी टनटनाहट!
बचपन में जब उसका बाप
पत्थरों से कुछ बतियाता,
छेनियाँ बजाता
उसकी भी मचल उठती हथेलियाँ ....

हाँ!
बहुत कुछ सीखा उसने
अपनी कला से
मसलन
फड़कते हुए होठ
सजीव आँखें
और बरौनियों का तीखापन
और भूख-पियास मार के
उसने भी रची एक रचना
एक दर्शन
एक जीवन्तता.
... और शामिल किया
प्रतियोगिता में
अपनी साधना आराधना
’जो बोलना चाहे’
लोग आते/ देखते न अघाते
और बस
देखते ही रह जाते.
.... और तभी
निर्णायक मण्डल का ऐलान
एक कमी की ओर
इशारा ...
’गाँधी की प्रतिमा को
संगतराश ने
सलीके से नहीं सँवारा है
क्योंकि महात्मा के सीने पर
गोलियों के निशान
नहीं उभारा है’

हाँ!
बहुत कुछ सीखा उसने
अपनी विरासत से
अपनी परम्परा और इस
नई लगानी से
मसलन
भुजाओं में फड़कती मछलियाँ
.... और पत्थरों का
पिघलता स्वरूप.

हाँ!
बहुत कुछ सीखा उसने
अपने बाप - दादों से.
मसलन ’मठन्ने’ की पकड़
उसकी चोट
छेनियों की बारीकी
और उसका उतार चढ़ाव.
बहुत कुछ
हाँ! बहुत कुछ.