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बहुत खुद्दार है घुटनों के बल चलकर नहीं आता / सुदेश कुमार मेहर
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बहुत खुद्दार है घुटनों के बल चलकर नहीं आता
वो लिखता है बहुत अच्छा मगर छपकर नहीं आता
मुहब्बत खलवते-दिल में उतर जाती है चुपके से,
ये ऐसा मर्ज़ है यारो कभी कहकर नहीं आता
रज़ा उसकी बहाती है तो पत्तों को किनारा है,
मगर खुद तैरता है आदमी बहकर नहीं आता
जो उसके दिल में आता है वही कहता है महफ़िल में,
कभी लिखकर नहीं लाता, कभी पढ़कर नहीं आता
बड़े लोगों से मिलता है बहुत मशहूर दुनियां में,
वो ऐसा शख्स के इलज़ाम भी उस पर नहीं आता
फ़कत काबिल हुआ तो क्या बहुत काफी नहीं इतना,
सिफारिश के लिये वो क्यों उसे मिलकर नहीं आता