भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बहुत दुश्वार है अब आईने से गुफ़्तुगू करना / राग़िब अख़्तर

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:55, 7 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राग़िब अख़्तर }} {{KKCatGhazal}} <poem> बहुत दुश...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बहुत दुश्वार है अब आईने से गुफ़्तुगू करना
सज़ा से कम नहीं है ख़ुद को अपने रू-ब-रू करना

अजब सीमाबियत है इन दिनों अपनी तबीअत में
कि जिस ने बात की हँस कर उसी की आरज़ू करना

इबादत के ततहीर-ए-दिल की भी ज़रूरत है
वज़ू के बाद फिर अश्क-ए-निदामत से वज़ू करना

ये वस्फ़-ए-ख़ास है कुछ आप से बा-वस्फ़ लोगों का
हमें आता नहीं है आप को लम्हे में तू करना

तिरी फ़ितरत में यूँ मुसबत इशारे ढूँढता हूँ मैं
किस सहरा को जेसे चाहता हूँ आबजू करना