भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बहुत नए कभी बेहद पुराने होते हैं / कांतिमोहन 'सोज़'

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:00, 31 जनवरी 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कांतिमोहन 'सोज़' |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बहुत नए कभी बेहद पुराने होते हैं ।
अब उसके पास अजब से बहाने होते हैं ।।

हमें ये तब कहाँ थी कि प्यार कर देखें
सुना था खून के आँसू बहाने होते हैं ।

सबब तो कुछ भी नहीं पर चलन है दुनिया का
कि दाग़े-दिल हमें हँसकर दिखाने होते हैं ।

हँसी नहीं है किसी की ख़ुशी का पैमाना
हँसी की ओट में आँसू छुपाने होते हैं ।

लिपटके पाँव से आती है ग़म की गर्द यहाँ
मगर निशात के लम्हे चुराने होते हैं ।

फ़रेब देती हैं आँखें ग़रीब होने का
पर उनके पास बला के ख़ज़ाने होते हैं ।

नहीं था सोज़ निशाना नहीं था तू उनका
अचूक तीर मगर आज़माने होते हैं ।।