भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं / फ़िराक़ गोरखपुरी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=फ़िराक़ गोरखपुरी
 
|रचनाकार=फ़िराक़ गोरखपुरी
|संग्रह= गुले-नग़मा
+
|संग्रह= गुले-नग़मा / फ़िराक़ गोरखपुरी
 
}}
 
}}
 
[[Category:ग़ज़ल]]
 
[[Category:ग़ज़ल]]
  
 
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं<br>
 
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं<br>
तुझे ए ज़िन्दगी, हम दूर से पहचान लेते हैं<br><br>
+
तुझे ए ज़िन्दगी, हम दूर से पहचान लेते हैं।<br><br>
  
मेरी नजरें भी ऐसे कातिलों का जान ओ ईमान हैं<br>
+
मेरी नजरें भी ऐसे काफ़िरों की जान ओ ईमाँ हैं<br>
निगाहे मिलते ही जो जान और ईमान लेते हैं <br><br>
+
निगाहे मिलते ही जो जान और ईमान लेते हैं। <br><br>
 +
 
 +
जिसे कहती दुनिया कामयाबी वाय नादानी
 +
उसे किन क़ीमतों पर कामयाब इंसान लेते हैं।
 +
 
 +
निगाहे-बादागूँ, यूँ तो तेरी बातों का क्या कहना
 +
तेरी हर बात लेकिन एहतियातन छान लेते हैं।
  
 
तबियत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में<br>
 
तबियत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में<br>
पंक्ति 17: पंक्ति 23:
 
खुद अपना फ़ैसला भी इश्क में काफ़ी नहीं होता<br>
 
खुद अपना फ़ैसला भी इश्क में काफ़ी नहीं होता<br>
 
उसे भी कैसे कर गुजरें जो दिल में ठान लेते हैं<br><br>
 
उसे भी कैसे कर गुजरें जो दिल में ठान लेते हैं<br><br>
 +
 +
हयाते-इश्क़ का इक-इक नफ़स जामे-शहादत है
 +
वो जाने-नाज़बरदाराँ, कोई आसान लेते हैं।
 +
 +
हमआहंगी में भी इक चासनी है इख़्तलाफ़ों की
 +
मेरी बातें ब‍उनवाने-दिगर वो मान लेते हैं।
 +
 +
तेरी मक़बूलियत की बज्‍हे-वाहिद तेरी रम्ज़ीयत
 +
कि उसको मानते ही कब हैं जिसको जान लेते हैं।
 +
 +
अब इसको कुफ़्र माने या बलन्दी-ए-नज़र जानें
 +
ख़ुदा-ए-दोजहाँ को देके हम इन्सान लेते हैं।
  
 
जिसे सूरत बताते हैं, पता देती है सीरत का<br>
 
जिसे सूरत बताते हैं, पता देती है सीरत का<br>
पंक्ति 24: पंक्ति 42:
 
हम अपने सर तेरा ऎ दोस्त हर नुक़सान लेते हैं <br><br>
 
हम अपने सर तेरा ऎ दोस्त हर नुक़सान लेते हैं <br><br>
  
 +
हमारी हर नजर तुझसे नयी सौगन्ध खाती है<br>
 +
तो तेरी हर नजर से हम नया पैगाम लेते हैं<br><br>
  
 
रफ़ीक़-ए-ज़िन्दगी थी अब अनीस-ए-वक़्त-ए-आखिर है<br>
 
रफ़ीक़-ए-ज़िन्दगी थी अब अनीस-ए-वक़्त-ए-आखिर है<br>
 
तेरा ऎ मौत! हम ये दूसरा एअहसान लेते हैं<br><br>
 
तेरा ऎ मौत! हम ये दूसरा एअहसान लेते हैं<br><br>
 
हमारी हर नजर तुझसे नयी सौगन्ध खाती है<br>
 
तो तेरी हर नजर से हम नया पैगाम लेते हैं<br><br>
 
  
 
ज़माना वारदात-ए-क़्ल्ब सुनने को तरसता है <br>
 
ज़माना वारदात-ए-क़्ल्ब सुनने को तरसता है <br>

01:33, 4 जून 2010 का अवतरण

बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ए ज़िन्दगी, हम दूर से पहचान लेते हैं।

मेरी नजरें भी ऐसे काफ़िरों की जान ओ ईमाँ हैं
निगाहे मिलते ही जो जान और ईमान लेते हैं।

जिसे कहती दुनिया कामयाबी वाय नादानी उसे किन क़ीमतों पर कामयाब इंसान लेते हैं।

निगाहे-बादागूँ, यूँ तो तेरी बातों का क्या कहना तेरी हर बात लेकिन एहतियातन छान लेते हैं।

तबियत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
हम ऐसे में तेरी यादों के चादर तान लेते हैं

खुद अपना फ़ैसला भी इश्क में काफ़ी नहीं होता
उसे भी कैसे कर गुजरें जो दिल में ठान लेते हैं

हयाते-इश्क़ का इक-इक नफ़स जामे-शहादत है वो जाने-नाज़बरदाराँ, कोई आसान लेते हैं।

हमआहंगी में भी इक चासनी है इख़्तलाफ़ों की मेरी बातें ब‍उनवाने-दिगर वो मान लेते हैं।

तेरी मक़बूलियत की बज्‍हे-वाहिद तेरी रम्ज़ीयत कि उसको मानते ही कब हैं जिसको जान लेते हैं।

अब इसको कुफ़्र माने या बलन्दी-ए-नज़र जानें ख़ुदा-ए-दोजहाँ को देके हम इन्सान लेते हैं।

जिसे सूरत बताते हैं, पता देती है सीरत का
इबारत देख कर जिस तरह मानी जान लेते हैं

तुझे घाटा ना होने देंगे कारोबार-ए-उल्फ़त में
हम अपने सर तेरा ऎ दोस्त हर नुक़सान लेते हैं

हमारी हर नजर तुझसे नयी सौगन्ध खाती है
तो तेरी हर नजर से हम नया पैगाम लेते हैं

रफ़ीक़-ए-ज़िन्दगी थी अब अनीस-ए-वक़्त-ए-आखिर है
तेरा ऎ मौत! हम ये दूसरा एअहसान लेते हैं

ज़माना वारदात-ए-क़्ल्ब सुनने को तरसता है
इसी से तो सर आँखों पर मेरा दीवान लेते हैं

'फ़िराक' अक्सर बदल कर भेस मिलता है कोई काफ़िर
कभी हम जान लेते हैं कभी पहचान लेते हैं