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बह रही हैं धूप-नदियाँ / पंख बिखरे रेत पर / कुमार रवींद्र

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धूप-नदियाँ
गुनगुनाती बह रही हैं धूप-नदियाँ
 
हाथ में पकड़े हवाएँ
सोनपरियाँ नाचतीं हैं
घने पत्तों के तले
परछाइयों को बाँचतीं हैं
 
भोर की अंतर्कथाएँ
 कह रहीं हैं धूप-नदियाँ
 
सीपियों के शहर में हैं
मछलियों के रोज़ जलसे
झाँककर
जादूमहल की बात करते
अक्स जल से
 
खुशबुओं की घाटियों में
   रह रहीं हैं धूप-नदियाँ
 
है शरारत रोशनी की
खोलकर खिड़की खड़ी है
देखिये तो इस घटा को
लग रहा
मोती-जड़ी है
 
आँच दिन की बड़ी नाज़ुक
   सह रहीं हैं धूप-नदियाँ