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बांग्ला देश मुक्ति-युद्ध पर दिल्ली में फ़िल्म ? और तसलीमा / समीर बरन नन्दी

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जलावतन, अकेली दर-बदर जी रही हो !
हिम्मत नहीं होती तुमसे पूछूँ कैसी हो तुम ।
खूँखार लोकप्रियता पानी थी तुम्हें
जो दो-दो धर्मो के जबड़े मे आ गई तुम ?
पर तुम यहाँ क्यों आ गई
सब विधि-विधान, धर्म, देश, और भाषा मे उठ गया बवंडर
( मातृभूमि ने तो सर क़लम दे ही दिया था )
भूखे शेर ने भी चला दिया तुम पर चप्पल ।
( हिन्दी मे भावुकता का निषेध है )
पर तुम न्याय किससे माँग रही हो
कविता की क़सम, जब सभ्यता आएगी
दक्षिण एशिया वाले बहुत रोवेंगे ।
हम उस परिभाषा मे आ गए है—
जब राजा नही रह जाता हे— तो न्याय भी नही रह जाता है ।

सभ्यता के लॉकर मे जब वोट रखे जाने हैं
तो खरे सोने के लिए जगह कहाँ बचती है ?
कोलकाता को भी क्यों याद करती है तू
वहाँ भी सबने कहा— तुम कितनी सुंदर हो ?
फिर वे बोले— बाबा रे बाबा तुमि सांघातिक !
बड़े-बड़े महारथी, धीर-गंभीर
पैंट वाले-कुर्ता वाले अँग्रेज़ी वाले, हिन्दी वाले
जिन्हे कुछ नहीं सूझता
उन्हे भी सूँघ गया तुम्हारे नाम का साँप ।

दक्षिण एशिया में सरकारों का इरादा है
सांप्रदायिकता की समस्या को चमकाना है ओर कमाना है
और उनके बीच आ गई तुम....
मैं एक फ़िका हुआ फेन का टुकड़ा
साथियों में, अख़बारों में, बहसों में कंडक्टर तक
भीष्म के स्वर मे बोला था— इसका कुछ करो
समय इतना कायर कभी नहीं रहा—
गाँधीजी होते तो तुम्हारे साथ क्या बर्ताव करते
आज मंत्रणा वाले क्या कहते हैं
कहीं कोई हलचल नहीं सभी जैसे भाग गए हैं
जैसे दुर्योधन की सभा मे द्रौपदी आ गई हो ।

हाँ, माँ जननी !
जो हिलसा खाते है
उनका क़िस्सा तो यही है
वे नहीं डूबते— उनका घर डूब जाता है
वहाँ का पानी ही सबसे अधिक तपता है
इस लिए तुम्हारी करुणा दमकती है .
तुम्हारी कविता 'डाल्फिन' मैंने पढ़ी—
जिसमे तुम योरोप की नदियों से होकर
सागरों को पार कर अपनी माँ से मछ्ली की तरह
ढाका मिलने आती हो
मुझे पता था तुम बंगालन, मछलियों की सहेली रही होगी
संग खेली होगी, बतियाई होगी, दुलारी होगी
तुम्हारे मन ने भी मछलियों की तरह जीना सीख लिया होगा
इसलिए उनके साथ ही किसी जल के भीतर
किसी डंठल के साए में वोटखोरन की बस्ती से दूर
छाँव खोज लो तुम ।
या—
सागर में मोती वापस नहीं जा पाता
वो सजता है दुनिया के गले में ।