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बाज़ी / अशोक कुमार

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मेरी बात कहाँ कोई मानता था
इसका सीधा मतलब यही तो था
कि मैं रहनुमा नहीं था

गलियाँ लांघते हुए
उम्र की कई देहरियाँ जब मैंने पार की थीं
तब भी कोई मेरे पीछे नहीं था

जब भी घर से निकलता
तो कोई कहाँ पूछता कि कहाँ जा रहा हूँ
जब भी घर पहुँचता
तो कोई कहाँ पूछता कि कहाँ से आ रहा हूँ

मैं जब बोलता तो बड़े अदब से बोलता
उस अदब में जोश के छौंक लगाता
कभी मेरी आवाज़ कांपने लगती
कभी जुमले टूटने लगते
कभी साँसें फूलने लगतीं

मैं जब बोलता तो ध्वनि के आरोह अवरोह से
कुछ लोग मेरी बातों के कुछ टुकड़े उठा लेते
ज्यादातर टुकड़े गिरा देते

मैंने यही जाना
कि वे लोग अलग थे
जिनके पीछे भीड़ खड़ी थी
जिनकी बातें असंख्य लोग सुनते
जिनकी बातें असंख्य लोग मानते
जिनकी बातों पर असंख्य लोग लड़ते

मैंने यही माना
कि वे लोग अलग थे
जिनके पीछे असंख्य लोग खड़े थे

वे लोग जो अलहदा थे
असंख्य मन के शासक थे
असंख्य मन के पोषक थे
अलहदा जमीन पर खड़े थे
अलहदा अफीम के गड्ढों के मालिक थे

अलग लोगों ने चौसर की अलग बिसातें बिछा रखी थीं
कभी जान-माल रखे जाते
कभी पशु-धन चढ़ जाते
कभी धर्म रख दिए जाते
कभी राज रख दिए जाते
बिछी हुई बिसातों पर

मेरी बात कोई न मानेगा
जानता हूँ रहनुमा कोई और हैं
महसूसता हूँ
उम्र की कई देहरियाँ पार कर लेने से
कोई सिर्फ़ उम्रदराज हो सकता है
अनुभवी नहीं

अचरज तो यही था
कि कई रहनुमा थे
और उनके पीछे असंख्य लोगों की फौज खड़ी थी
चौसरबाजों ने उनकी बाजी लगा रखी थी।