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बातों के भीतर बातें / शंख घोष / रोहित प्रसाद पथिक

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सभी नहीं, फिर भी
बहुत बातों के भीतर बातें खोजते हैं
सहज भाषा तुम भूल गए हो
इस मूसलाधार बारिश में
आओ नहा लें ।

पानी के भीतर कितने मुक्तिपथ हैं ?
कभी सोचकर देखो
अब बाधित होकर बैठे रहकर
बहुत ज़्यादा देर बैठे रहकर
सिर्फ़ बैठे रहकर

हृदय बहुत कुण्ठित हो चुका है
मालूम पड़ता है
अब क्या ?

तुम्हारी कोई निजी गरिमामय भाषा नहीं ?

क्यों आज
हर समय
इतना अपने विरुद्ध बोलते हो ।

मूल बांग्ला से अनुवाद : रोहित प्रसाद पथिक