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बादल उठे कहीं, सपने में / देवेन्द्र कुमार

बादल उठे
कहीं, सपने में ।

झूल रहे घोंसले बया के
पेड़ बन गए पात्र दया के
हम तुम दुबक रहे
अपने में ।

फूट-फूट कर बरसा पानी
धूप-हवा की अजब कहानी
धरती सिमट गई
इतने में ।

अन्धियारे की लम्बी खेती
रात चाँद के अण्डे सेती
अन्धड़ मियाँ फँसे
मझने में ।