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अमल धवल गिरि के शिखरों पर,
बादल को घिरते देखा है।
 
छोटे-छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहिन कणों को,
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है,
 
बादल को घिरते देखा है।
तुंग हिमालय के कंधों पर
छोटी -बड़ी कई झीलें हैं,
उनके श्यामल नील सलिल में
समतल देशों से आ-आकर
पावस की उमस ऊमस से आकुलतिक्त-मधुर विषतंतु विस-तंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है।
 
बादल को घिरते देखा है।
अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे
एक-दूसरे से विरहित हो
अलग-अलग बगल रहकर ही जिनकोसारी रात बितानी होतीहोगी,निशा-काल निशाकाल से चिर-अभिशापित
बेबस उस चकवा-चकई का
बंद हुआ क्रंदनक्रन्दन, फिर उनमेंउस महान् महान सरवर के तीरे
शैवालों की हरी दरी पर
प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।
 
बादल को घिरते देखा है।
दुर्गम बर्फानी घाटी में
शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर
दुर्गम बर्फानी घाटी में
अलख नाभि से उठने वाले
निज के ही उन्मादक परिमल-
के पीछे धावित हो-होकर
तरल-तरुण कस्तूरी मृग को
अपने पर चिढ़ते देखा है,है।
बादल को घिरते देखा है।
कहाँ गय गया धनपति कुबेर वह?कहाँ गई गयी उसकी वह अलका?
नहीं ठिकाना कालिदास के
व्योम-प्रवाही गंगाजल का,
ढूँढ़ा बहुत किन्तु परन्तु लगा क्या
मेघदूत का पता कहीं पर,
कौन बताए वह छायामय
बरस पड़ा होगा न यहीं पर,
जाने दो , वह कवि-कल्पित था,
मैंने तो भीषण जाड़ों में
नभ-चुंबी चुम्बी कैलाश शीर्ष पर,
महामेघ को झंझानिल से
गरज-गरज भिड़ते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।
शत-शत निर्झर-निर्झरणी -कलमुखरित देवदारु कनन कानन में,शोणित -धवल भोज पत्रों -भोजपत्रों सेछाई छायी हुई कुटी के भीतर,
रंग-बिरंगे और सुगंधित
फूलों की कुंतल से कुन्तल को साजे,
इंद्रनील की माला डाले
शंख-सरीखे सुघड़ गलों में,
कानों में कुवलय लटकाए,
शतदल लाल कमल वेणी में,
रजत-रचित मणि -खचित कलामयपान पात्र द्राक्षासव -पूरित
रखे सामने अपने-अपने
लोहित चंदन की त्रिपटी त्रिपदी पर,नरम निदाग बाल -कस्तूरी
मृगछालों पर पलथी मारे
मदिरारुण आखों वाले उन
मृदुल मनोरम अँगुलियों को
वंशी पर फिरते देखा है।
 
बादल को घिरते देखा है।
 
'''1938'''
'''('युगधारा')'''
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