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छोटे-छोटे मोती जैसे<br>
 
उसके शीतल तुहिन कणों को,<br>
 मानसरोवर के उन स्वर्णिम<br>
कमलों पर गिरते देखा है,<br>
 
बादल को घिरते देखा है।<br>
ऋतु वसंत का सुप्रभात था<br>मंद-मंद था अनिल बह रहा<br>बालारुण की मृदु किरणें थीं<br>अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे<br>एक-दूसरे से विरहित हो<br>अलग-अलग रहकर ही जिनको<br>सारी रात बितानी होती,<br>निशा-काल से चिर-अभिशापित<br>बेबस उस चकवा-चकई का<br>बंद हुआ क्रंदन, फिर उनमें<br>उस महान् सरवर के तीरे<br>शैवालों की हरी दरी पर<br>
प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।<br>
शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर<br>
दुर्गम बर्फानी घाटी में<br>
शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर<br>
अलख नाभि से उठने वाले<br>
निज के ही उन्मादक परिमल-<br>
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