Last modified on 31 मार्च 2011, at 19:06

बादल पंख बने / केदारनाथ अग्रवाल

Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:06, 31 मार्च 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

बादल
पंख बने पर्वत के,
फड़-फड़ फड़के,
घने हुए घहराए,
लेकिन
उसको उठा न पाए,
उड़ा न पाए,
लेकर भाग न पाए,
झरे-
झार-बौछार मारकर,
पानी होकर-
बरसे पानी,
उसके चारों ओर,
देह पाहनी
शीतलकाय हुई;
यह दिन
मुझको याद रहेगा
वर्षा मंगल का।

रचनाकाल: २८-०८-१९९१