Last modified on 15 जून 2020, at 13:30

बाबा और मैं / जलज कुमार अनुपम

Jalaj Mishra (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:30, 15 जून 2020 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

'बाबा' महज एक नाम नहीं है
मेरे लिए
रिश्तों की वट वृक्ष है
जिसकी अनेक शाखाएँ हैं
यह मेरा आसमान है
जिनके नीचे
मैं खेल-कूद कर बड़ा हुआ।
याद है मुझे -
जब मैं बच्चा था
वे नित्य कुछ न कुछ सिखाते थे
मैं कत्तई बड़ा नहीं था
फिर भी
वे बड़ा बताते थे।
रवाना हुआ जब मैं शहर के लिए
आँखें भर आई थी उनकी
कुर्ते की जेब से निकाल कर कुछ पैसे
मेरे पाॅकिट में सरका दिए थे
वे बोल नहीं पा रहे थे
आँखें कहाँ भला किसी की सुनती हैं
वेदना के स्वर आँखों ने सुनना शुरु किया
और मैं लिपट गया उनसे
उनकी व्याकुलता बढ़ती जा रही थी
वे चाहते थे वक्त रुक जाए
उन्होंने कहा 'मेरे मरने पर
लकड़ी रखने जरुर आना
वादा करो मुझसे'
मैं रोते-रोते दौड़कर भाग गया
पापा के पास
ट्रेन चलने पर
मैंने पापा से पूछा
'बाबा कहते है
माँ-बाप भगवान के रुप होते हैं
पापा कोई भगवान को भी
छोड़ कर जाता है क्या ?'
पापा कुछ बोल न पाए
मुझे डाॅट कर शान्त करा दिया
मुझे बार-बार बाबा की आँखें याद आ रही थीं
जो कह रही थीं
ये सब मेरा अपना कसूर है
मैंने अपना सब कुछ
उस शिक्षा पर लगाया
जिसने मुझसे ही
सबको दूर कर दिया।