भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बारिश-1 / पंकज राग

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बारिश का तेज
पीटता है सड़कों को
जैसे कई-कई देवता पीट रहे हों मनुष्यों को
बार-बार गिरते हों उस पर
और धराशायी करते हों
जैसे उठा हुआ एक हाथ वज्रपात कर रहा हो सदी पर
जैसे छोटे-छोटे घरों में गीले-गीले हादसों से
जल्दी-जल्दी होने लगा हो नदियों का जन्म
जैसे इन्द्र की तनी हुई भौं और अप्सराओं के तने हुए बदन से
दहल रही हों इन घरों की औरतें
जैसे हर सीधे-सादे बच्चे को होली में भुतहा बनाकर रुलाता हो
एक दबंग समूह त्यौहार के नाम पर
जैसे फुटपाथों पर खड़े खोमचेवालों को हर दो दिन पर
पीटने लगा हो कानून
जैसे भर गया हो पानी शरीर के तराजू में
और हल्की हो गई हो मन की क़िताब
जैसे घुटनों तक पैर उठाकर और कितनी गलियाँ नापकर
सिला बदन लिए ठिठुरते पहुँचे कोई समूह
किसी गगनचुम्बी इमारत के अन्दर सूखने
और पाए कि सील चुकी हैं नौकरियाँ
और जैसे एक बड़े शहर के चमकीले सभागार में
रंगीन कीमती कुर्तों से उठते गुरु-गम्भीर जयन्ती-मल्हार ने
दबा दिया हो ग्रामीण सलवटों से भरी साड़ियों की
मुस्कुराती कजरी को

ऊँचे-नीचे के इस सूखे-गीले खेल में
जीत-हार पहले से तय करके ही गरजते हैं बादल
हमेशा से बेइमान रहा है बारिशों का यह तेज