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बारिश / जावेद आलम ख़ान

खिड़की से बूंदें देखकर लहकी लड़की
भीगने के लिए जब तक छत पर पहुँची
बारिश रुक चुकी थी
उसके तलवे सहलाने के लिए रह गई थी
केवल गीली छत
चेहरे पर पड़ती हवा में बूंदों की तासीर तो थी
मगर बूंदों की रोमांचक चोट न थी

बच्ची उदासी भरे लहजे में बोली
अब्बू मैं अम्मी से बारिश की शिकायत करूंगी
और यकायक मुझे भान हुआ
कि दरवाजे के पार होती बारिश से अनजान
मोबाइल की बोर्ड पर चलती अंगुलियों में खोया
असली कविता उधेड़कर नकली कविता बुन रहा हूँ
मैं कविता को छोड़कर महज कवि को सुन रहा हूँ

मुझे अहसास हुआ कि कविता और मुझमें
बस इतनी ही दूरी है
जितनी छत और जीने की सीढ़ियों में है
पास बैठे बाप और बेटी की पीढ़ियों में है
कि परिपक्वता कविता की नहीं कवि की मजबूरी है
कविता तो किसी छत पर बारिश में भीग रही होगी
और कवि समझदारी का लबादा ओढ़े
बालकनी में बैठकर हिकारत से देख रहा होगा

बस मैंने छत का दरवाजा खोला और पुकारा बेसाख्ता
जल्दी आओ अमायरा बारिश फिर से आई है

जीवन की सच्ची कविता मैंने अभी-अभी सीखी है
अपनी तीन साल की बेटी से