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|रचनाकार=तुलसीदास
|संग्रह=रामचरितमानस / तुलसीदास
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<poem>
॥श्री गणेशाय नमः ॥
श्रीजानकीवल्लभो विजयते
श्री रामचरित मानस
प्रथम सोपान
(बालकाण्ड)
<center><font size=1>श्रीगणेशायनमः</font></center><br><center><font size=1>श्रीजानकीवल्लभो विजयते</font></center><br><center><font size=6>श्रीरामचरितमानस</font></center><br><br><center><font size=4>प्रथम सोपान</font></center><br><br><center><font size=5>बालकाण्ड</font></center><br><br><span class="shloka"><br>श्लोक<br>वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।<br>मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥१॥वाणीविनायकौ॥1॥<br>भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।<br>याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाःस्वान्तःस्थमीश्वरम्॥२॥सिद्धाःस्वान्तःस्थमीश्वरम्॥2॥<br>वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शङ्कररूपिणम्।<br>यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥३॥वन्द्यते॥3॥<br>सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ।<br>वन्दे विशुद्धविज्ञानौ कवीश्वरकपीश्वरौ॥४॥कबीश्वरकपीश्वरौ॥4॥<br>उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्।<br>सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्॥५॥रामवल्लभाम्॥5॥<br>यन्मायावशवर्तिं विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा<br>यत्सत्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।<br>यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां<br>वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्॥६॥हरिम्॥6॥<br>नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्<br>रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।<br>स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा-<br>भाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति॥७॥</span>भाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति॥7॥<br><span class="soratha"><br>सो०सो0-जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन।<br>करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥१॥सदन॥1॥<br>मूक होइ बाचाल पंगु चढइ गिरिबर गहन।<br>जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन॥२॥दहन॥2॥<br>नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन बारिज नयन।<br>करउ सो मम उर धाम सदा छीरसागर सयन॥३॥सयन॥3॥<br>कुंद इंदु सम देह उमा रमन करुना अयन।<br>जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन॥४॥मयन॥4॥<br>बंदउँ बंदउ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।<br>महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥५॥निकर॥5॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-बंदउँ बंदउ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥<br>अमिय मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥१॥परिवारू॥<br>सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥<br>जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥२॥करनी॥<br>श्रीगुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि द्रृष्टि हियँ होती॥<br>दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥३॥जासू॥<br>उघरहिं बिमल बिलोचन हिय ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥<br>सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥४॥खानिक॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।<br>कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान॥१॥निधान॥1॥</span><br>एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा॥<span class="chaupaai">मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी॥<br>चौ०भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ। राम नाम बिनु सोह न सोऊ॥बिधुबदनी सब भाँति सँवारी। सोन न बसन बिना बर नारी॥सब गुन रहित कुकबि कृत बानी। राम नाम जस अंकित जानी॥सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही। मधुकर सरिस संत गुनग्राही॥जदपि कबित रस एकउ नाही। राम प्रताप प्रकट एहि माहीं॥सोइ भरोस मोरें मन आवा। केहिं न सुसंग बडप्पनु पावा॥धूमउ तजइ सहज करुआई। अगरु प्रसंग सुगंध बसाई॥भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी। राम कथा जग मंगल करनी॥छं0-मंगल करनि कलि मल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की॥गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की॥प्रभु सुजस संगति भनिति भलि होइहि सुजन मन भावनी॥भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी॥दो0-प्रिय लागिहि अति सबहि मम भनिति राम जस संग।दारु बिचारु कि करइ कोउ बंदिअ मलय प्रसंग॥10(क)॥स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान।गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान॥10(ख)॥ गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिय अमिअ दृग दोष बिभंजन॥<br>तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन॥१॥मोचन॥<br>बंदउँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संसय सब हरना॥<br>सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥२॥सुबानी॥<br>साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू॥<br>जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥३॥पावा॥<br>मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥<br>राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥४॥प्रचारा॥<br>बिधि निषेधमय कलि मल हरनी। करम कथा रबिनंदनि बरनी॥<br>हरि हर कथा बिराजति बेनी। सुनत सकल मुद मंगल देनी॥५॥देनी॥<br>बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा॥<br>सबहिं सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥६॥कलेसा॥<br>अकथ अलौकिक तीरथराऊ। देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ॥७॥प्रभाऊ॥</span><span class="doha"><br>दो0-सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।<br>लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग॥२॥प्रयाग॥2॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥<br>सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥१॥गोई॥<br>बालमीक नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी॥<br>जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना॥२॥जहाना॥<br>मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई॥<br>सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥ ३॥<br>बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥<br>सतसंगत मुद मंगल मूला। सोइ फल सिधि सब साधन फूला॥४॥फूला॥<br>सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई॥<br>बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥५॥अनुसरहीं॥<br>बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी। कहत साधु महिमा सकुचानी॥<br>सो मो सन कहि जात न कैसें। साक बनिक मनि गुन गन जैसें॥६॥जैसें॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ।<br>अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ॥३दोइ॥3(क)॥<br>संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु।<br>बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु॥३देहु॥3(ख)॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥<br>पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरें॥ १॥<br>हरि हर जस राकेस राहु से। पर अकाज भट सहसबाहु से॥<br>जे पर दोष लखहिं सहसाखी। पर हित घृत जिन्ह के मन माखी॥२॥माखी॥<br>तेज कृसानु रोष महिषेसा। अघ अवगुन धन धनी धनेसा॥<br>उदय केत सम हित सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके॥३॥नीके॥<br>पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं॥<br>बंदउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा॥४॥दोषा॥<br>पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना। पर अघ सुनइ सहस दस काना॥<br>बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही। संतत सुरानीक हित जेही॥५॥जेही॥<br>बचन बज्र जेहि सदा पिआरा। सहस नयन पर दोष निहारा॥६॥निहारा॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति।<br>जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति॥४॥सप्रीति॥4॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा। तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा॥<br>बायस पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा॥१॥कागा॥<br>बंदउँ संत असज्जन चरना। दुखप्रद उभय बीच कछु बरना॥<br>बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीं॥२॥देहीं॥<br>उपजहिं एक संग जग माहीं। जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं॥<br>सुधा सुरा सम साधू असाधू। जनक एक जग जलधि अगाधू॥३॥अगाधू॥<br>भल अनभल निज निज करतूती। लहत सुजस अपलोक बिभूती॥<br>सुधा सुधाकर सुरसरि साधू। गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू॥४॥ब्याधू॥<br>गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई॥५॥सोई॥</span><span class="doha"><br>दो0-भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु।<br>सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु॥५॥मीचु॥5॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-खल अघ अगुन साधू गुन गाहा। उभय अपार उदधि अवगाहा॥<br>तेहि तें कछु गुन दोष बखाने। संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने ॥१॥पहिचाने॥<br>भलेउ पोच सब बिधि उपजाए। गनि गुन दोष बेद बिलगाए॥<br>कहहिं बेद इतिहास पुराना। बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना॥२॥साना॥<br>दुख सुख पाप पुन्य दिन राती। साधु असाधु सुजाति कुजाती॥<br>दानव देव ऊँच अरु नीचू। अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू॥३॥मीचू॥<br>माया ब्रह्म जीव जगदीसा। लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा॥<br>कासी मग सुरसरि क्रमनासा। मरु मारव महिदेव गवासा॥४॥गवासा॥<br>सरग नरक अनुराग बिरागा। निगमागम गुन दोष बिभागा ॥५॥बिभागा॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।<br>संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥६॥बिकार॥6॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-अस बिबेक जब देइ बिधाता। तब तजि दोष गुनहिं मनु राता॥<br>काल सुभाउ करम बरिआईं। बरिआई। भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाईं॥१॥भलाई॥<br>सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं। दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं॥<br>खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू। मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू॥२॥अभंगू॥<br>लखि सुबेष जग बंचक जेऊ। बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ॥<br>उधरहिं अंत न होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू॥३॥राहू॥<br>किएहुँ कुबेष साधु सनमानू। जिमि जग जामवंत हनुमानू॥<br>हानि कुसंग सुसंगति लाहू। लोकहुँ बेद बिदित सब काहू॥४॥काहू॥<br>गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा। कीचहिं मिलइ नीच जल संगा॥<br>साधु असाधु सदन सुक सारीं। सुमिरहिं राम देहिं गनि गारी॥५॥गारी॥<br>धूम कुसंगति कारिख होई। लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई॥<br>सोइ जल अनल अनिल संघाता। होइ जलद जग जीवन दाता॥६॥दाता॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-ग्रह भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग।<br>होहि कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग॥७लोग॥7(क)॥<br>सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह।<br>ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह॥७दीन्ह॥7(ख)॥<br>जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि।<br>बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि॥७पानि॥7(ग)॥<br>देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गंधर्ब।<br>बंदउँ किंनर रजनिचर कृपा करहु अब सर्ब॥७सर्ब॥7(घ)॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी॥<br>सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥१॥पानी॥<br>जानि कृपाकर किंकर मोहू। सब मिलि करहु छाड़ि छल छोहू॥<br>निज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं। तातें बिनय करउँ सब पाही॥२॥पाही॥<br>करन चहउँ रघुपति गुन गाहा। लघु मति मोरि चरित अवगाहा॥<br>सूझ न एकउ अंग उपाऊ। मन मति रंक मनोरथ राऊ॥३॥राऊ॥<br>मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी। चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी॥<br>छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई। सुनिहहिं बालबचन मन लाई॥४॥लाई॥<br>जौं जौ बालक कह तोतरि बाता। सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता॥<br>हँसिहहिं हँसिहहि कूर कुटिल कुबिचारी। जे पर दूषन भूषनधारी॥५॥भूषनधारी॥<br>निज कबित्त कवित केहि लाग न नीका। सरस होउ अथवा अति फीका॥<br>जे पर भनिति सुनत हरषाहीं। हरषाही। ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं॥६॥नाहीं॥<br>जग बहु नर सर सरि सम भाई। जे निज बाढ़ि बढ़हिं जल पाई॥<br>सज्जन सकृत सिंधु सम कोई। देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई॥७॥जोई॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-भाग छोट अभिलाषु बड़ करउँ एक बिस्वास।<br>पैहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करिहहिं उपहास॥८॥करहहिं उपहास॥8॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-खल परिहास होइ हित मोरा। काक कहहिं कलकंठ कठोरा॥<br>हंसहि बक दादुर चातकही। हँसहिं मलिन खल बिमल बतकही॥१॥बतकही॥<br>कबित रसिक न राम पद नेहू। तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू॥<br>भाषा भनिति भोरि मति मोरी। हँसिबे जोग हँसें नहिं खोरी॥२॥खोरी॥<br>प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी। तिन्हहि कथा सुनि लागहि फीकी॥<br>हरि हर पद रति मति न कुतरकी। तिन्ह कहुँ मधुर कथा रघुबर की॥३॥रघुवर की॥<br>राम भगति भूषित जियँ जानी। सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी॥<br>कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू। सकल कला सब बिद्या हीनू॥४॥हीनू॥<br>आखर अरथ अलंकृति नाना। छंद प्रबंध अनेक बिधाना॥<br>भाव भेद रस भेद अपारा। कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा॥५॥प्रकारा॥<br>कबित बिबेक एक नहिं मोरें। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे॥६॥कोरे॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक।<br>सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिवेक॥९॥बिवेक॥9॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा॥<br>मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी॥१॥<br>भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ। राम नाम बिनु सोह न सोऊ॥<br>बिधुबदनी सब भाँति सँवारी। सोह न बसन बिना बर नारी॥२॥<br>सब गुन रहित कुकबि कृत बानी। राम नाम जस अंकित जानी॥<br>सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही। मधुकर सरिस संत गुनग्राही॥३॥<br>जदपि कबित रस एकउ नाहीं। राम प्रताप प्रकट एहि माहीं॥<br>सोइ भरोस मोरें मन आवा। केहिं न सुसंग बड़प्पनु पावा॥४॥<br>धूमउ तजइ सहज करुआई। अगरु प्रसंग सुगंध बसाई॥<br>भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी। राम कथा जग मंगल करनी॥५॥</span><span class="chhand"><br>छं०-मंगल करनि कलि मल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की॥<br>गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की॥<br>प्रभु सुजस संगति भनिति भलि होइहि सुजन मन भावनी॥<br>भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी॥</span><span class="doha"><br>दो०-प्रिय लागिहि अति सबहि मम भनिति राम जस संग।<br>दारु बिचारु कि करइ कोउ बंदिअ मलय प्रसंग॥१०(क)॥<br>स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान।<br>गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान॥१०(ख)॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-मनि मानिक मुकुता छबि जैसी। अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी॥<br>नृप किरीट तरुनी तनु पाई। लहहिं सकल सोभा अधिकाई॥१॥अधिकाई॥<br>तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं। उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं॥<br>भगति हेतु बिधि भवन बिहाई। सुमिरत सारद आवति धाई॥२॥धाई॥<br>राम चरित सर बिनु अन्हवाएँ। सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ॥<br>कबि कोबिद अस हृदयँ बिचारी। गावहिं हरि जस कलि मल हारी॥३॥हारी॥<br>कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना। सिर धुनि गिरा लगत पछिताना॥<br>हृदय सिंधु मति सीप समाना। स्वाति सारदा कहहिं सुजाना॥४॥सुजाना॥<br>जौं बरषइ बर बारि बिचारू। होहिं कबित मुकुतामनि चारू॥५॥चारू॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग।<br>पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग॥११॥अनुराग॥11॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-जे जनमे कलिकाल कराला। करतब बायस बेष मराला॥<br>चलत कुपंथ बेद मग छाँड़े। कपट कलेवर कलि मल भाँड़े॥१॥भाँड़ें॥<br>बंचक भगत कहाइ राम के। किंकर कंचन कोह काम के॥<br>तिन्ह महँ प्रथम रेख जग मोरी। धींग धरमध्वज धंधक धोरी॥२॥धोरी॥<br>जौं अपने अवगुन सब कहऊँ। बाढ़इ कथा पार नहिं लहऊँ॥<br>ताते मैं अति अलप बखाने। थोरे महुँ जानिहहिं सयाने॥३॥सयाने॥<br>समुझि बिबिधि बिधि बिनती मोरी। कोउ न कथा सुनि देइहि खोरी॥<br>एतेहु पर करिहहिं जे असंका। मोहि ते अधिक ते जड़ मति रंका॥४॥रंका॥<br>कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ। मति अनुरूप राम गुन गावउँ॥<br>कहँ रघुपति के चरित अपारा। कहँ मति मोरि निरत संसारा॥५॥संसारा॥<br>जेहिं मारुत गिरि मेरु उड़ाहीं। कहहु तूल केहि लेखे माहीं॥<br>समुझत अमित राम प्रभुताई। करत कथा मन अति कदराई॥६॥कदराई॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-सारद सेस महेस बिधि आगम निगम पुरान।<br>नेति नेति कहि जासु गुन करहिं निरंतर गान॥१२॥गान॥12॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-सब जानत प्रभु प्रभुता सोई। तदपि कहें बिनु रहा न कोई॥<br>तहाँ बेद अस कारन राखा। भजन प्रभाउ भाँति बहु भाषा॥१॥भाषा॥<br>एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानंद पर धामा॥<br>ब्यापक बिस्वरूप भगवाना। तेहिं धरि देह चरित कृत नाना॥२॥नाना॥<br>सो केवल भगतन हित लागी। परम कृपाल प्रनत अनुरागी॥<br>जेहि जन पर ममता अति छोहू। जेहिं करुना करि कीन्ह न कोहू॥३॥कोहू॥<br>गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू॥<br>बुध बरनहिं हरि जस अस जानी। करहि पुनीत सुफल निज बानी॥४॥बानी॥<br>तेहिं बल मैं रघुपति गुन गाथा। कहिहउँ नाइ राम पद माथा॥<br>मुनिन्ह प्रथम हरि कीरति गाई। तेहिं मग चलत सुगम मोहि भाई॥५॥भाई॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-अति अपार जे सरित बर जौं नृप सेतु कराहिं।<br>चढि पिपीलिकउ परम लघु बिनु श्रम पारहि जाहिं॥१३॥जाहिं॥13॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-एहि प्रकार बल मनहि देखाई। करिहउँ रघुपति कथा सुहाई॥<br>ब्यास आदि कबि पुंगव नाना। जिन्ह सादर हरि सुजस बखाना॥१॥बखाना॥<br>चरन कमल बंदउँ तिन्ह केरे। पुरवहुँ सकल मनोरथ मेरे॥<br>कलि के कबिन्ह करउँ परनामा। जिन्ह बरने रघुपति गुन ग्रामा॥२॥ग्रामा॥<br>जे प्राकृत कबि परम सयाने। भाषाँ जिन्ह हरि चरित बखाने॥<br>भए जे अहहिं जे होइहहिं आगें। प्रनवउँ सबहिं कपट सब त्यागें॥३॥त्यागें॥<br>होहु प्रसन्न देहु बरदानू। साधु समाज भनिति सनमानू॥<br>जो प्रबंध बुध नहिं आदरहीं। सो श्रम बादि बाल कबि करहीं॥४॥करहीं॥<br>कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई॥<br>राम सुकीरति भनिति भदेसा। असमंजस अस मोहि अँदेसा॥५॥अँदेसा॥<br>तुम्हरी कृपाँ कृपा सुलभ सोउ मोरे। सिअनि सुहावनि टाट पटोरे॥६॥पटोरे॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-सरल कबित कीरति बिमल सोइ आदरहिं सुजान।<br>सहज बयर बिसराइ रिपु जो सुनि करहिं बखान॥१४बखान॥14(क)॥<br>सो न होइ बिनु बिमल मति मोहि मति बल अति थोर।<br>करहु कृपा हरि जस कहउँ पुनि पुनि करउँ निहोर॥१४निहोर॥14(ख)॥<br>कबि कोबिद रघुबर चरित मानस मंजु मराल।<br>बाल बिनय सुनि सुरुचि लखि मो पर मोपर होहु कृपाल॥१४कृपाल॥14(ग)॥</span><span class="soratha"><br>सो०सो0-बंदउँ मुनि पद कंजु रामायन जेहिं निरमयउ।<br>सखर सुकोमल मंजु दोष रहित दूषन सहित॥१४सहित॥14(घ)॥<br>बंदउँ चारिउ बेद भव बारिधि बोहित सरिस।<br>जिन्हहि न सपनेहुँ खेद बरनत रघुबर बिसद जसु॥१४जसु॥14(ङ)॥<br>बंदउँ बिधि पद रेनु भव सागर जेहि कीन्ह जहँ।<br>संत सुधा ससि धेनु प्रगटे खल बिष बारुनी॥१४बारुनी॥14(च)॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-बिबुध बिप्र बुध ग्रह चरन बंदि कहउँ कर जोरि।<br>होइ प्रसन्न पुरवहु सकल मंजु मनोरथ मोरि॥१४मोरि॥14(छ)॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-पुनि बंदउँ सारद सुरसरिता। जुगल पुनीत मनोहर चरिता॥<br>मज्जन पान पाप हर एका। कहत सुनत एक हर अबिबेका॥१॥अबिबेका॥<br>गुर पितु मातु महेस भवानी। प्रनवउँ दीनबंधु दिन दानी॥<br>सेवक स्वामि सखा सिय पी के। हित निरुपधि सब बिधि तुलसी के॥२॥तुलसीके॥<br>कलि बिलोकि जग हित हर गिरिजा। साबर मंत्र जाल जिन्ह सिरिजा॥<br>अनमिल आखर अरथ न जापू। प्रगट प्रभाउ महेस प्रतापू॥३॥प्रतापू॥<br>सो उमेस मोहि पर अनुकूला। करिहिं कथा मुद मंगल मूला॥<br>सुमिरि सिवा सिव पाइ पसाऊ। बरनउँ रामचरित चित चाऊ॥४॥चाऊ॥<br>भनिति मोरि सिव कृपाँ बिभाती। ससि समाज मिलि मनहुँ सुराती॥<br>जे एहि कथहि सनेह समेता। कहिहहिं सुनिहहिं समुझि सचेता॥५॥सचेता॥<br>होइहहिं राम चरन अनुरागी। कलि मल रहित सुमंगल भागी॥६॥भागी॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-सपनेहुँ साचेहुँ मोहि पर जौं हर गौरि पसाउ।<br>तौ फुर होउ जो कहेउँ सब भाषा भनिति प्रभाउ॥१५॥प्रभाउ॥15॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-बंदउँ अवध पुरी अति पावनि। सरजू सरि कलि कलुष नसावनि॥<br>प्रनवउँ पुर नर नारि बहोरी। ममता जिन्ह पर प्रभुहि न थोरी॥१॥थोरी॥<br>सिय निंदक अघ ओघ नसाए। लोक बिसोक बनाइ बसाए॥<br>बंदउँ कौसल्या दिसि प्राची। कीरति जासु सकल जग माची॥२॥माची॥<br>प्रगटेउ जहँ रघुपति ससि चारू। बिस्व सुखद खल कमल तुसारू॥<br>दसरथ राउ सहित सब रानी। सुकृत सुमंगल मूरति मानी॥३॥मानी॥<br>करउँ प्रनाम करम मन बानी। करहु कृपा सुत सेवक जानी॥<br>जिन्हहि बिरचि बड़ भयउ बिधाता। महिमा अवधि राम पितु माता॥४॥माता॥</span><span class="soratha"><br>सो०सो0-बंदउँ अवध भुआल सत्य प्रेम जेहि राम पद।<br>बिछुरत दीनदयाल प्रिय तनु तृन इव परिहरेउ॥१६॥परिहरेउ॥16॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू। जाहि राम पद गूढ़ सनेहू॥<br>जोग भोग महँ राखेउ गोई। राम बिलोकत प्रगटेउ सोई॥१॥सोई॥<br>प्रनवउँ प्रथम भरत के चरना। जासु नेम ब्रत जाइ न बरना॥<br>राम चरन पंकज मन जासू। लुबुध मधुप इव तजइ न पासू॥२॥पासू॥<br>बंदउँ लछिमन पद जलजाता। सीतल सुभग भगत सुख दाता॥<br>रघुपति कीरति बिमल पताका। दंड समान भयउ जस जाका॥३॥जाका॥<br>सेष सहस्त्रसीस जग कारन। जो अवतरेउ भूमि भय टारन॥<br>सदा सो सानुकूल रह मो पर। कृपासिंधु सौमित्रि गुनाकर॥४॥गुनाकर॥<br>रिपुसूदन पद कमल नमामी। सूर सुसील भरत अनुगामी॥<br>महाबीर महावीर बिनवउँ हनुमाना। राम जासु जस आप बखाना॥५॥बखाना॥</span><span class="soratha"><br>सो०सो0-प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यानघन।ग्यानधन।<br>जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर॥१७॥धर॥17॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-कपिपति रीछ निसाचर राजा। अंगदादि जे कीस समाजा॥<br>बंदउँ सब के चरन सुहाए। अधम सरीर राम जिन्ह पाए॥१॥पाए॥<br>रघुपति चरन उपासक जेते। खग मृग सुर नर असुर समेते॥<br>बंदउँ पद सरोज सब केरे। जे बिनु काम राम के चेरे॥२॥चेरे॥<br>सुक सनकादि भगत मुनि नारद। जे मुनिबर बिग्यान बिसारद॥<br>प्रनवउँ सबहिं धरनि धरि सीसा। करहु कृपा जन जानि मुनीसा॥३॥मुनीसा॥<br>जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान करुना निधान की॥<br>ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥४॥पावउँ॥<br>पुनि मन बचन कर्म रघुनायक। चरन कमल बंदउँ सब लायक॥<br>राजिवनयन धरें धनु सायक। भगत बिपति भंजन सुख दायक॥५॥दायक॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न।<br>बंदउँ बदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न॥१८॥खिन्न॥18॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-बंदउँ नाम राम रघुवर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥<br>बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो॥१॥सो॥<br>महामंत्र जोइ जपत महेसू। कासीं मुकुति हेतु उपदेसू॥<br>महिमा जासु जान गनराउ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ॥२॥प्रभाऊ॥<br>जान आदिकबि नाम प्रतापू। भयउ सुद्ध करि उलटा जापू॥<br>सहस नाम सम सुनि सिव बानी। जपि जेईं जेई पिय संग भवानी॥३॥भवानी॥<br>हरषे हेतु हेरि हर ही को। किय भूषन तिय भूषन ती को॥<br>नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को॥४॥को॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-बरषा रितु रघुपति भगति तुलसी सालि सुदास॥<br>राम नाम बर बरन जुग सावन भादव मास॥१९॥मास॥19॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-आखर मधुर मनोहर दोऊ। बरन बिलोचन जन जिय जोऊ॥<br>सुमिरत सुलभ सुखद सब काहू। लोक लाहु परलोक निबाहू॥१॥निबाहू॥<br>कहत सुनत सुमिरत सुठि नीके। राम लखन सम प्रिय तुलसी के॥<br>बरनत बरन प्रीति बिलगाती। ब्रह्म जीव सम सहज सँघाती॥२॥सँघाती॥<br>नर नारायन सरिस सुभ्राता। जग पालक बिसेषि जन त्राता॥<br>भगति सुतिय कल करन बिभूषन। जग हित हेतु बिमल बिधु पूषन॥३॥ पूषन ।<br>स्वाद तोष सम सुगति सुधा के। कमठ सेष सम धर बसुधा के॥<br>जन मन मंजु कंज मधुकर से। जीह जसोमति हरि हलधर से॥४॥से॥</span><span class="doha"><br>दो०-दो0-एकु छत्रु एकु मुकुटमनि सब बरननि पर जोउ।<br>तुलसी रघुबर नाम के बरन बिराजत दोउ॥२०॥दोउ॥20॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-समुझत सरिस नाम अरु नामी। प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी॥<br>नाम रूप दुइ ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी॥१॥साधी॥<br>को बड़ छोट कहत अपराधू। सुनि गुन भेद समुझिहहिं साधू॥<br>देखिअहिं रूप नाम आधीना। रूप ग्यान नहिं नाम बिहीना॥२॥बिहीना॥<br>रूप बिसेष नाम बिनु जानें। करतल गत न परहिं पहिचानें॥<br>सुमिरिअ नाम रूप बिनु देखें। आवत हृदयँ सनेह बिसेषें॥३॥बिसेषें॥<br>नाम रूप गति अकथ कहानी। समुझत सुखद न परति बखानी॥<br>अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी। उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी॥४॥दुभाषी॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरी द्वार।<br>तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर॥२१॥उजिआर॥21॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-नाम जीहँ जपि जागहिं जोगी। बिरति बिरंचि प्रपंच बियोगी॥<br>ब्रह्मसुखहि अनुभवहिं अनूपा। अकथ अनामय नाम न रूपा॥१॥रूपा॥<br>जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ। नाम जीहँ जपि जानहिं तेऊ॥<br>साधक नाम जपहिं लय लाएँ। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ॥२॥पाएँ॥<br>जपहिं नामु जन आरत भारी। मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी॥<br>राम भगत जग चारि प्रकारा। सुकृती चारिउ अनघ उदारा॥३॥उदारा॥<br>चहू चतुर कहुँ नाम अधारा। ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा॥<br>चहुँ जुग चहुँ श्रुति नाम ना प्रभाऊ। कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ॥४॥उपाऊ॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन।<br>नाम सुप्रेम पियूष हद तिन्हहुँ किए मन मीन॥२२॥मीन॥22॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा॥<br>मोरें मत बड़ नामु दुहू तें। किए जेहिं जुग निज बस निज बूतें॥१॥बूतें॥<br>प्रौढ़ि प्रोढ़ि सुजन जनि जानहिं जन की। कहउँ प्रतीति प्रीति रुचि मन की॥<br>एकु दारुगत देखिअ एकू। पावक सम जुग ब्रह्म बिबेकू॥२॥बिबेकू॥<br>उभय अगम जुग सुगम नाम तें। कहेउँ नामु बड़ ब्रह्म राम तें॥<br>ब्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी। सत चेतन घन धन आनँद रासी॥३॥रासी॥<br>अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी। सकल जीव जग दीन दुखारी॥<br>नाम निरूपन नाम जतन तें। सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें॥४॥तें॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-निरगुन तें एहि भाँति बड़ नाम प्रभाउ अपार।<br>कहउँ नामु बड़ राम तें निज बिचार अनुसार॥२३॥अनुसार॥23॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-राम भगत हित नर तनु धारी। सहि संकट किए साधु सुखारी॥<br>नामु सप्रेम जपत अनयासा। भगत होहिं मुद मंगल बासा॥१॥बासा॥<br>राम एक तापस तिय तारी। नाम कोटि खल कुमति सुधारी॥<br>रिषि हित राम सुकेतुसुता की। सहित सेन सुत कीन्ह बिबाकी॥२॥बिबाकी॥<br>सहित दोष दुख दास दुरासा। दलइ नामु जिमि रबि निसि नासा॥<br>भंजेउ राम आपु भव चापू। भव भय भंजन नाम प्रतापू॥३॥प्रतापू॥<br>दंडक बनु प्रभु कीन्ह सुहावन। जन मन अमित नाम किए पावन॥।<br>निसिचर निकर दले रघुनंदन। नामु सकल कलि कलुष निकंदन॥४॥निकंदन॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-सबरी गीध सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ।<br>नाम उधारे अमित खल बेद बिदित गुन गाथ॥२४॥गाथ॥24॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-राम सुकंठ बिभीषन दोऊ। राखे सरन जान सबु कोऊ॥<br>नाम गरीब अनेक नेवाजे। लोक बेद बर बिरिद बिराजे॥१॥बिराजे॥<br>राम भालु कपि कटकु बटोरा। सेतु हेतु श्रमु कीन्ह न थोरा॥<br>नामु लेत भवसिंधु सुखाहीं। करहु बिचारु सुजन मन माहीं॥२॥माहीं॥<br>राम सकुल रन रावनु मारा। सीय सहित निज पुर पगु धारा॥<br>राजा रामु अवध रजधानी। गावत गुन सुर मुनि बर बानी॥३॥बानी॥<br>सेवक सुमिरत नामु सप्रीती। बिनु श्रम प्रबल मोह दलु जीती॥<br>फिरत सनेहँ मगन सुख अपनें। नाम प्रसाद सोच नहिं सपनें॥४॥सपनें॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-ब्रह्म राम तें नामु बड़ बर दायक बर दानि।<br>रामचरित सत कोटि महँ लिय महेस जियँ जानि॥२५॥जानि॥25॥</span><br><span class="vishraam">मासपारायण, पहला विश्राम</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-नाम प्रसाद संभु अबिनासी। साजु अमंगल मंगल रासी॥<br>सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी। नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी॥१॥भोगी॥<br>नारद जानेउ नाम प्रतापू। जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू॥<br>नामु जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू। भगत सिरोमनि भे प्रहलादू॥२॥प्रहलादू॥<br>ध्रुवँ सगलानि जपेउ हरि नाऊँ। पायउ अचल अनूपम ठाऊँ॥<br>सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपने बस करि राखे रामू॥३॥रामू॥<br>अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ। भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ॥<br>कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥४॥गाई॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु।<br>जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु॥२६॥तुलसीदासु॥26॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका। भए नाम जपि जीव बिसोका॥<br>बेद पुरान संत मत एहू। सकल सुकृत फल राम सनेहू॥१॥सनेहू॥<br>ध्यानु प्रथम जुग मख बिधि मखबिधि दूजें। द्वापर परितोषत प्रभु पूजें॥<br>कलि केवल मल मूल मलीना। पाप पयोनिधि जन मन मीना॥२॥जन मीना॥<br>नाम कामतरु काल कराला। सुमिरत समन सकल जग जाला॥<br>राम नाम कलि अभिमत दाता। हित परलोक लोक पितु माता॥३॥माता॥<br>नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू॥<br>कालनेमि कलि कपट निधानू। नाम सुमति समरथ हनुमानू॥४॥हनुमानू॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल।<br>जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल॥२७॥सुरसाल॥27॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥<br>सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा। करउँ नाइ रघुनाथहि माथा॥१॥माथा॥<br>मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥<br>राम सुस्वामि कुसेवकु मोसो। निज दिसि देखि दैखि दयानिधि पोसो॥२॥पोसो॥<br>लोकहुँ बेद सुसाहिब रीतीं। बिनय सुनत पहिचानत प्रीती॥<br>गनी गरीब ग्राम नर ग्रामनर नागर। पंडित मूढ़ मलीन उजागर॥३॥उजागर॥<br>सुकबि कुकबि निज मति अनुहारी। नृपहि सराहत सब नर नारी॥<br>साधु सुजान सुसील नृपाला। ईस अंस भव परम कृपाला॥४॥कृपाला॥<br>सुनि सनमानहिं सबहि सुबानी। भनिति भगति नति गति पहिचानी॥<br>यह प्राकृत महिपाल सुभाऊ। जान सिरोमनि कोसलराऊ॥५॥कोसलराऊ॥<br>रीझत राम सनेह निसोतें। को जग मंद मलिनमति मोतें॥६॥मोतें॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-सठ सेवक की प्रीति रुचि रखिहहिं राम कृपालु।<br>उपल किए जलजान जेहिं सचिव सुमति कपि भालु॥२८भालु॥28(क)॥<br>हौंहु हौहु कहावत सबु कहत राम सहत उपहास।<br>साहिब सीतानाथ सो सेवक तुलसीदास॥२८तुलसीदास॥28(ख)॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-अति बड़ि मोरि ढिठाई खोरी। सुनि अघ नरकहुँ नाक सकोरी॥<br>समुझि सहम मोहि अपडर अपनें। सो सुधि राम कीन्हि नहिं सपनें॥१॥सपनें॥<br>सुनि अवलोकि सुचित चख चाही। भगति मोरि मति स्वामि सराही॥<br>कहत नसाइ होइ हियँ नीकी। रीझत राम जानि जन जी की॥२॥की॥<br>रहति न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरति सय बार हिए की॥<br>जेहिं अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली। फिरि सुकंठ सोइ कीन्ह कुचाली॥३॥कुचाली॥<br>सोइ करतूति बिभीषन केरी। सपनेहुँ सो न राम हियँ हेरी॥<br>ते भरतहि भेंटत सनमाने। राजसभाँ रघुबीर बखाने॥४॥बखाने॥</span><span class="doha"><br>दो0-प्रभु तरु तर कपि डार पर ते किए आपु समान॥<br>तुलसी कहूँ न राम से साहिब सीलनिधान॥२९सीलनिधान॥29(क)॥<br>राम निकाईं रावरी है सबही को नीक।<br>जों यह साँची है सदा तौ नीको तुलसीक॥२९तुलसीक॥29(ख)॥<br>एहि बिधि निज गुन दोष कहि सबहि बहुरि सिरु नाइ।<br>बरनउँ रघुबर बिसद जसु सुनि कलि कलुष नसाइ॥२९नसाइ॥29(ग)॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-जागबलिक जो कथा सुहाई। भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई॥<br>कहिहउँ सोइ संबाद बखानी। सुनहुँ सकल सज्जन सुखु मानी॥१॥मानी॥<br>संभु कीन्ह यह चरित सुहावा। बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा॥<br>सोइ सिव कागभुसुंडिहि दीन्हा। राम भगत अधिकारी चीन्हा॥२॥चीन्हा॥<br>तेहि सन जागबलिक पुनि पावा। तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा॥<br>ते श्रोता बकता समसीला। सवँदरसी जानहिं हरिलीला॥३॥हरिलीला॥<br>जानहिं तीनि काल निज ग्याना। करतल गत आमलक समाना॥<br>औरउ जे हरिभगत सुजाना। कहहिं सुनहिं समुझहिं बिधि नाना॥४॥नाना॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-मैं मै पुनि निज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत।<br>समुझी नहिं नहि तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत॥३०अचेत॥30(क)॥<br>श्रोता बकता ग्याननिधि कथा राम कै गूढ़।<br>किमि समुझौं मैं मै जीव जड़ कलि मल ग्रसित बिमूढ़॥३०बिमूढ़॥30(ख)</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-तदपि कही गुर बारहिं बारा। समुझि परी कछु मति अनुसारा॥<br>भाषाबद्ध करबि मैं सोई। मोरें मन प्रबोध जेहिं होई॥१॥होई॥<br>जस कछु बुधि बिबेक बल मेरें। तस कहिहउँ हियँ हरि के प्रेरें॥<br>निज संदेह मोह भ्रम हरनी। करउँ कथा भव सरिता तरनी॥२॥तरनी॥<br>बुध बिश्राम सकल जन रंजनि। रामकथा कलि कलुष बिभंजनि॥<br>रामकथा कलि पंनग भरनी। पुनि बिबेक पावक कहुँ अरनी॥३॥अरनी॥<br>रामकथा कलि कामद गाई। सुजन सजीवनि मूरि सुहाई॥<br>सोइ बसुधातल सुधा तरंगिनि। भय भंजनि भ्रम भेक भुअंगिनि॥४॥भुअंगिनि॥<br>असुर सेन सम नरक निकंदिनि। साधु बिबुध कुल हित गिरिनंदिनि॥<br>संत समाज पयोधि रमा सी। बिस्व भार भर अचल छमा सी॥५॥सी॥<br>जम गन मुहँ मसि जग जमुना सी। जीवन मुकुति हेतु जनु कासी॥<br>रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी। तुलसिदास हित हियँ हुलसी सी॥६॥सी॥<br>सिवप्रिय सिवप्रय मेकल सैल सुता सी। सकल सिद्धि सुख संपति रासी॥<br>सदगुन सुरगन अंब अदिति सी। रघुबर भगति प्रेम परमिति सी॥७॥सी॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0- राम कथा मंदाकिनी चित्रकूट चित चारु।<br>तुलसी सुभग सनेह बन सिय रघुबीर बिहारु॥३१॥बिहारु॥31॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-राम चरित चिंतामनि चारू। संत सुमति तिय सुभग सिंगारू॥<br>जग मंगल गुनग्राम गुन ग्राम राम के। दानि मुकुति धन धरम धाम के॥१॥के॥<br>सदगुर ग्यान बिराग जोग के। बिबुध बैद भव भीम रोग के॥<br>जननि जनक सिय राम प्रेम के। बीज सकल ब्रत धरम नेम के॥२॥के॥<br>समन पाप संताप सोक के। प्रिय पालक परलोक लोक के॥<br>सचिव सुभट भूपति बिचार के। कुंभज लोभ उदधि अपार के॥३॥के॥<br>काम कोह कलिमल करिगन के। केहरि सावक जन मन बन के॥<br>अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के। कामद घन दारिद दवारि के॥४॥के॥<br>मंत्र महामनि बिषय ब्याल के। मेटत कठिन कुअंक भाल के॥<br>हरन मोह तम दिनकर कर से। सेवक सालि पाल जलधर से॥५॥से॥<br>अभिमत दानि देवतरु बर से। सेवत सुलभ सुखद हरि हर से॥<br>सुकबि सरद नभ मन उडगन से। रामभगत जन जीवन धन से॥६॥से॥<br>सकल सुकृत फल भूरि भोग से। जग हित निरुपधि साधु लोग से॥<br>सेवक मन मानस मराल से। पावन पावक गंग तंरग माल से॥७॥से॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-कुपथ कुतरक कुचालि कलि कपट दंभ पाषंड।<br>दहन राम गुन ग्राम जिमि इंधन अनल प्रचंड॥३२प्रचंड॥32(क)॥<br>रामचरित राकेस कर सरिस सुखद सब काहु।<br>सज्जन कुमुद चकोर चित हित बिसेषि बड़ लाहु॥३२लाहु॥32(ख)॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-कीन्हि प्रस्न जेहि भाँति भवानी। जेहि बिधि संकर कहा बखानी॥<br>सो सब हेतु कहब मैं गाई। कथा प्रबंध कथाप्रबंध बिचित्र बनाई॥१॥बनाई॥<br>जेहि यह कथा सुनी नहिं होई। जनि आचरजु करैं सुनि सोई॥<br>कथा अलौकिक सुनहिं जे ग्यानी। नहिं आचरजु करहिं अस जानी॥२॥जानी॥<br>रामकथा कै मिति जग नाहीं। असि प्रतीति तिन्ह के मन माहीं॥<br>नाना भाँति राम अवतारा। रामायन सत कोटि अपारा॥३॥अपारा॥<br>कलप भेद कलपभेद हरिचरित सुहाए। भाँति अनेक मुनीसन्ह गाए॥<br>करिअ न संसय अस उर आनी। सुनिअ कथा सादर सारद रति मानी॥४॥मानी॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-राम अनंत अनंत गुन अमित कथा बिस्तार।<br>सुनि आचरजु न मानिहहिं जिन्ह कें बिमल बिचार॥३३॥बिचार॥33॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-एहि बिधि सब संसय करि दूरी। सिर धरि गुर पद पंकज धूरी॥<br>पुनि सबही बिनवउँ कर जोरी। करत कथा जेहिं लाग न खोरी॥१॥खोरी॥<br>सादर सिवहि नाइ अब माथा। बरनउँ बिसद राम गुन गाथा॥<br>संबत सोरह सै एकतीसा। करउँ कथा हरि पद धरि सीसा॥२॥सीसा॥<br>नौमी भौम बार मधु मासा। अवधपुरीं यह चरित प्रकासा॥<br>जेहि दिन राम जनम श्रुति गावहिं। तीरथ सकल तहाँ चलि आवहिं॥३॥आवहिं॥<br>असुर नाग खग नर मुनि देवा। आइ करहिं रघुनायक सेवा॥<br>जन्म महोत्सव रचहिं सुजाना। करहिं राम कल कीरति गाना॥४॥गाना॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-मज्जहिं मज्जहि सज्जन बृंद बहु पावन सरजू नीर।<br>जपहिं राम धरि ध्यान उर सुंदर स्याम सरीर॥३४॥सरीर॥34॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-दरस परस मज्जन अरु पाना। हरइ पाप कह बेद पुराना॥<br>नदी पुनीत अमित महिमा अति। कहि न सकइ सारद बिमल मति॥१॥बिमलमति॥<br>राम धामदा पुरी सुहावनि। लोक समस्त बिदित अति पावनि॥<br>चारि खानि जग जीव अपारा। अवध तजें तजे तनु नहिं संसारा॥२॥नहि संसारा॥<br>सब बिधि पुरी मनोहर जानी। सकल सिद्धिप्रद मंगल खानी॥<br>बिमल कथा कर कीन्ह अरंभा। सुनत नसाहिं काम मद दंभा॥३॥दंभा॥<br>रामचरितमानस एहि नामा। सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा॥<br>मन करि विषय अनल बन जरई। होइ सुखी जौ एहिं सर परई॥४॥परई॥<br>रामचरितमानस मुनि भावन। बिरचेउ संभु सुहावन पावन॥<br>त्रिबिध दोष दुख दारिद दावन। कलि कुचालि कुलि कलुष नसावन॥५॥नसावन॥<br>रचि महेस निज मानस राखा। पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा॥<br>तातें रामचरितमानस बर। धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर॥६॥हर॥<br>कहउँ कथा सोइ सुखद सुहाई। सादर सुनहु सुजन मन लाई॥७॥लाई॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-जस मानस जेहि बिधि भयउ जग प्रचार जेहि हेतु।<br>अब सोइ कहउँ प्रसंग सब सुमिरि उमा बृषकेतु॥३५॥बृषकेतु॥35॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-संभु प्रसाद सुमति हियँ हुलसी। रामचरितमानस कबि तुलसी॥<br>करइ मनोहर मति अनुहारी। सुजन सुचित सुनि लेहु सुधारी॥१॥सुधारी॥<br>सुमति भूमि थल हृदय अगाधू। बेद पुरान उदधि घन साधू॥<br>बरषहिं राम सुजस बर बारी। मधुर मनोहर मंगलकारी॥२॥मंगलकारी॥<br>लीला सगुन जो कहहिं बखानी। सोइ स्वच्छता करइ मल हानी॥<br>प्रेम भगति जो बरनि न जाई। सोइ मधुरता सुसीतलताई॥३॥सुसीतलताई॥<br>सो जल सुकृत सालि हित होई। राम भगत जन जीवन सोई॥<br>मेधा महि गत सो जल पावन। सकिलि श्रवन मग चलेउ सुहावन॥४॥सुहावन॥<br>भरेउ सुमानस सुथल थिराना। सुखद सीत रुचि चारु चिराना॥५॥चिराना॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-सुठि सुंदर संबाद बर बिरचे बुद्धि बिचारि।<br>तेइ एहि पावन सुभग सर घाट मनोहर चारि॥३६॥चारि॥36॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-सप्त प्रबन्ध सुभग सोपाना। ग्यान नयन निरखत मन माना॥<br>रघुपति महिमा अगुन अबाधा। बरनब सोइ बर बारि अगाधा॥१॥अगाधा॥<br>राम सीय जस सलिल सुधासम। उपमा बीचि बिलास मनोरम॥<br>पुरइनि सघन चारु चौपाई। जुगुति मंजु मनि सीप सुहाई॥२॥सुहाई॥<br>छंद सोरठा सुंदर दोहा। सोइ बहुरंग कमल कुल सोहा॥<br>अरथ अनूप सुभाव सुमाव सुभासा। सोइ पराग मकरंद सुबासा॥३॥सुबासा॥<br>सुकृत पुंज मंजुल अलि माला। ग्यान बिराग बिचार मराला॥<br>धुनि अवरेब कबित गुन जाती। मीन मनोहर ते बहुभाँती॥४॥बहुभाँती॥<br>अरथ धरम कामादिक चारी। कहब ग्यान बिग्यान बिचारी॥<br>नव रस जप तप जोग बिरागा। ते सब जलचर चारु तड़ागा॥५॥तड़ागा॥<br>सुकृती साधु नाम गुन गाना। ते बिचित्र जल बिहग समाना॥<br>संतसभा चहुँ दिसि अवँराई। श्रद्धा रितु बसंत सम गाई॥६॥गाई॥<br>भगति निरुपन बिबिध बिधाना। छमा दया दम लता बिताना॥<br>सम जम नियम फूल फल ग्याना। हरि पत रति रस बेद बखाना॥७॥बखाना॥<br>औरउ कथा अनेक प्रसंगा। तेइ सुक पिक बहुबरन बिहंगा॥८॥बिहंगा॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-पुलक बाटिका बाग बन सुख सुबिहंग बिहारु।<br>माली सुमन सनेह जल सींचत लोचन चारु॥३७॥चारु॥37॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-जे गावहिं यह चरित सँभारे। तेइ एहि ताल चतुर रखवारे॥<br>सदा सुनहिं सादर नर नारी। तेइ सुरबर मानस अधिकारी॥१॥अधिकारी॥<br>अति खल जे बिषई बग कागा। एहिं सर निकट न जाहिं अभागा॥<br>संबुक भेक सेवार समाना। इहाँ न बिषय कथा रस नाना॥२॥नाना॥<br>तेहि कारन आवत हियँ हारे। कामी काक बलाक बिचारे॥<br>आवत एहिं सर अति कठिनाई। राम कृपा बिनु आइ न जाई॥३॥जाई॥<br>कठिन कुसंग कुपंथ कराला। तिन्ह के बचन बाघ हरि ब्याला॥<br>गृह कारज नाना जंजाला। ते अति दुर्गम सैल बिसाला॥४॥बिसाला॥<br>बन बहु बिषम मोह मद माना। नदीं कुतर्क भयंकर नाना॥५॥नाना॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-जे श्रद्धा संबल रहित नहि संतन्ह कर साथ।<br>तिन्ह कहुँ मानस अगम अति जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ॥३८॥रघुनाथ॥38॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-जौं करि कष्ट जाइ पुनि कोई। जातहिं नींद जुड़ाई होई॥<br>जड़ता जाड़ बिषम उर लागा। गएहुँ न मज्जन पाव अभागा॥१॥अभागा॥<br>करि न जाइ सर मज्जन पाना। फिरि आवइ समेत अभिमाना॥<br>जौं बहोरि कोउ पूछन आवा। सर निंदा करि ताहि बुझावा॥२॥बुझावा॥<br>सकल बिघ्न ब्यापहि नहिं तेही। राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही॥<br>सोइ सादर सर मज्जनु करई। महा घोर त्रयताप न जरई॥३॥जरई॥<br>ते नर यह सर तजहिं न काऊ। जिन्ह के राम चरन भल भाऊ॥<br>जो नहाइ चह एहिं सर भाई। सो सतसंग करउ मन लाई॥४॥लाई॥<br>अस मानस मानस चख चाही। भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही॥<br>भयउ हृदयँ आनंद उछाहू। उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू॥५॥प्रबाहू॥<br>चली सुभग कबिता सरिता सो। राम बिमल जस जल भरिता सो॥<br>सरजू नाम सुमंगल मूला। लोक बेद मत मंजुल कूला॥६॥कूला॥<br>नदी पुनीत सुमानस नंदिनि। कलिमल तृन तरु मूल निकंदिनि॥७॥निकंदिनि॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-श्रोता त्रिबिध समाज पुर ग्राम नगर दुहुँ कूल।<br>संतसभा अनुपम अवध सकल सुमंगल मूल॥३९॥मूल॥39॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-रामभगति सुरसरितहि जाई। मिली सुकीरति सरजु सुहाई॥<br>सानुज राम समर जसु पावन। मिलेउ महानदु सोन सुहावन॥१॥सुहावन॥<br>जुग बिच भगति देवधुनि धारा। सोहति सहित सुबिरति बिचारा॥<br>त्रिबिध ताप त्रासक तिमुहानी। राम सरुप सिंधु समुहानी॥२॥समुहानी॥<br>मानस मूल मिली सुरसरिही। सुनत सुजन मन पावन करिही॥<br>बिच बिच कथा बिचित्र बिभागा। जनु सरि तीर तीर बन बागा॥३॥बागा॥<br>उमा महेस बिबाह बराती। ते जलचर अगनित बहुभाँती॥<br>रघुबर जनम अनंद बधाई। भवँर तरंग मनोहरताई॥४॥मनोहरताई॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-बालचरित चहु बंधु के बनज बिपुल बहुरंग।<br>नृप रानी परिजन सुकृत मधुकर बारिबिहंग॥४०॥बारिबिहंग॥40॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-सीय स्वयंबर कथा सुहाई। सरित सुहावनि सो छबि छाई॥<br>नदी नाव पटु प्रस्न अनेका। केवट कुसल उतर सबिबेका॥१॥सबिबेका॥<br>सुनि अनुकथन परस्पर होई। पथिक समाज सोह सरि सोई॥<br>घोर धार भृगुनाथ रिसानी। घाट सुबद्ध राम बर बानी॥२॥बानी॥<br>सानुज राम बिबाह उछाहू। सो सुभ उमग सुखद सब काहू॥<br>कहत सुनत हरषहिं पुलकाहीं। ते सुकृती मन मुदित नहाहीं॥३॥नहाहीं॥<br>राम तिलक हित मंगल साजा। परब जोग जनु जुरे समाजा॥<br>काई कुमति केकई केरी। परी जासु फल बिपति घनेरी॥४॥घनेरी॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-समन अमित उतपात सब भरतचरित जपजाग।<br>कलि अघ खल अवगुन कथन ते जलमल बग काग॥४१॥काग॥41॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-कीरति सरित छहूँ रितु रूरी। समय सुहावनि पावनि भूरी॥<br>हिम हिमसैलसुता सिव ब्याहू। सिसिर सुखद प्रभु जनम उछाहू॥१॥उछाहू॥<br>बरनब राम बिबाह समाजू। सो मुद मंगलमय रितुराजू॥<br>ग्रीषम दुसह राम बनगवनू। पंथकथा खर आतप पवनू॥२॥पवनू॥<br>बरषा घोर निसाचर रारी। सुरकुल सालि सुमंगलकारी॥<br>राम राज सुख बिनय बड़ाई। बिसद सुखद सोइ सरद सुहाई॥३॥सुहाई॥<br>सती सिरोमनि सिय गुनगाथा। सोइ गुन अमल अनूपम पाथा॥<br>भरत सुभाउ सुसीतलताई। सदा एकरस बरनि न जाई॥४॥जाई॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0- अवलोकनि बोलनि मिलनि प्रीति परसपर हास।<br>भायप भलि चहु बंधु की जल माधुरी सुबास॥४२॥सुबास॥42॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-आरति बिनय दीनता मोरी। लघुता ललित सुबारि न थोरी॥<br>अदभुत सलिल सुनत गुनकारी। आस पिआस मनोमल हारी॥१॥हारी॥<br>राम सुप्रेमहि पोषत पानी। हरत सकल कलि कलुष गलानी॥गलानौ॥<br>भव श्रम सोषक तोषक तोषा। समन दुरित दुख दारिद दोषा॥२॥दोषा॥<br>काम कोह मद मोह नसावन। बिमल बिबेक बिराग बढ़ावन॥<br>सादर मज्जन पान किए तें। मिटहिं पाप परिताप हिए तें॥३॥तें॥<br>जिन्ह एहिं एहि बारि न मानस धोए। ते कायर कलिकाल बिगोए॥<br>तृषित निरखि रबि कर भव बारी। फिरिहहि मृग जिमि जीव दुखारी॥४॥दुखारी॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-मति अनुहारि सुबारि गुन गनि मन अन्हवाइ।<br>सुमिरि भवानी संकरहि कह कबि कथा सुहाइ॥४३सुहाइ॥43(क)॥<br>अब रघुपति पद पंकरुह हियँ धरि पाइ प्रसाद ।<br>कहउँ जुगल मुनिबर्ज कर मिलन सुभग संबाद॥४३संबाद॥43(ख)॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा। तिन्हहि राम पद अति अनुरागा॥<br>तापस सम दम दया निधाना। परमारथ पथ परम सुजाना॥१॥सुजाना॥<br>माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई॥<br>देव दनुज किंनर नर श्रेनीं। श्रेनी। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं॥२॥त्रिबेनीं॥<br>पूजहि माधव पद जलजाता। परसि अखय बटु हरषहिं गाता॥<br>भरद्वाज आश्रम अति पावन। परम रम्य मुनिबर मन भावन॥३॥भावन॥<br>तहाँ होइ मुनि रिषय समाजा। जाहिं जे मज्जन तीरथराजा॥<br>मज्जहिं प्रात समेत उछाहा। कहहिं परसपर हरि गुन गाहा॥४॥गाहा॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-ब्रह्म निरूपम धरम बिधि बरनहिं तत्त्व बिभाग।<br>कहहिं भगति भगवंत कै संजुत ग्यान बिराग॥४४॥बिराग॥44॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं। पुनि सब निज निज आश्रम जाहीं॥<br>प्रति संबत अति होइ अनंदा। मकर मज्जि गवनहिं मुनिबृंदा॥१॥मुनिबृंदा॥<br>एक बार भरि मकर नहाए। सब मुनीस आश्रमन्ह सिधाए॥<br>जागबलिक जगबालिक मुनि परम बिबेकी। भरव्दाज राखे पद टेकी॥२॥टेकी॥<br>सादर चरन सरोज पखारे। अति पुनीत आसन बैठारे॥<br>करि पूजा मुनि सुजस बखानी। बोले अति पुनीत मृदु बानी॥३॥बानी॥<br>नाथ एक संसउ बड़ मोरें। करगत बेदतत्त्व बेदतत्व सबु तोरें॥<br>कहत सो मोहि लागत भय लाजा। जौ न कहउँ बड़ होइ अकाजा॥४॥अकाजा॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-संत कहहि असि नीति प्रभु श्रुति पुरान मुनि गाव।<br>होइ न बिमल बिबेक उर गुर सन किएँ दुराव॥४५॥दुराव॥45॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-अस बिचारि प्रगटउँ निज मोहू। हरहु नाथ करि जन पर छोहू॥<br>राम रास नाम कर अमित प्रभावा। संत पुरान उपनिषद गावा॥१॥गावा॥<br>संतत जपत संभु अबिनासी। सिव भगवान ग्यान गुन रासी॥<br>आकर चारि जीव जग अहहीं। कासीं मरत परम पद लहहीं॥२॥लहहीं॥<br>सोपि राम महिमा मुनिराया। सिव उपदेसु करत करि दाया॥<br>रामु कवन प्रभु पूछउँ तोही । तोही। कहिअ बुझाइ कृपानिधि मोही॥३॥मोही॥<br>एक राम अवधेस कुमारा। तिन्ह कर चरित बिदित संसारा॥<br>नारि बिरहँ दुखु लहेउ अपारा। भयहु रोषु रन रावनु मारा॥४॥मारा॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि।<br>सत्यधाम सर्बग्य तुम्ह कहहु बिबेकु बिचारि॥४६॥बिचारि॥46॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-जैसे मिटै मोर भ्रम भारी। कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी॥<br>जागबलिक बोले मुसुकाई। तुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई॥१॥प्रभुताई॥<br>राममगत तुम्ह मन क्रम बानी। चतुराई तुम्हारि तुम्हारी मैं जानी॥<br>चाहहु सुनै राम गुन गूढ़ा। कीन्हिहु प्रस्न मनहुँ अति मूढ़ा॥२॥मूढ़ा॥<br>तात सुनहु सादर मनु लाई। कहउँ राम कै कथा सुहाई॥<br>महामोहु महिषेसु बिसाला। रामकथा कालिका कराला॥३॥कराला॥<br>रामकथा ससि किरन समाना। संत चकोर करहिं जेहि पाना॥<br>ऐसेइ संसय कीन्ह भवानी। महादेव तब कहा बखानी॥४॥बखानी॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-कहउँ सो मति अनुहारि अब उमा संभु संबाद।<br>भयउ समय जेहि हेतु जेहि सुनु मुनि मिटिहि बिषाद॥४७॥बिषाद॥47॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-एक बार त्रेता जुग माहीं। संभु गए कुंभज रिषि पाहीं॥<br>संग सती जगजननि भवानी। पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी॥१॥जानी॥<br>रामकथा मुनिबर्ज मुनीबर्ज बखानी। सुनी महेस परम सुखु मानी॥<br>रिषि पूछी हरिभगति सुहाई। कही संभु अधिकारी पाई॥२॥पाई॥<br>कहत सुनत रघुपति गुन गाथा। कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा॥<br>मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी। चले भवन सँग दच्छकुमारी॥३॥दच्छकुमारी॥<br>तेहि अवसर भंजन महिभारा। हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा॥<br>पिता बचन तजि राजु उदासी। दंडक बन बिचरत अबिनासी॥४॥अबिनासी॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-ह्दयँ बिचारत जात हर केहि बिधि दरसनु होइ।<br>गुप्त रुप अवतरेउ प्रभु गएँ जान सबु कोइ॥४८कोइ॥48(क)॥</span><br><span class="soratha"><br>सो०सो0-संकर उर अति छोभु सती न जानहिं मरमु सोइ॥<br>तुलसी दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची॥४८लालची॥48(ख)॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-रावन मरन मनुज कर जाचा। प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा॥<br>जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा। करत बिचारु न बनत बनावा॥१॥बनावा॥<br>एहि बिधि भए सोचबस ईसा। तेहि समय जाइ दससीसा॥<br>लीन्ह नीच मारीचहि संगा। भयउ तुरत सोइ कपट कुरंगा॥२॥कुरंगा॥<br>करि छलु मूढ़ हरी बैदेही। प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही॥<br>मृग बधि बन्धु सहित हरि आए। आश्रमु देखि नयन जल छाए॥३॥छाए॥<br>बिरह बिकल नर इव रघुराई। खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई॥<br>कबहूँ जोग बियोग न जाकें। देखा प्रगट बिरह दुख ताकें॥४॥ताकें॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-अति विचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान।<br>जे मतिमंद बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन॥४९॥आन॥49॥</span><br><span class="chaupaai"><br>चौ०-संभु समय तेहि रामहि देखा। उपजा हियँ अति हरषु हरपु बिसेषा॥<br>भरि लोचन छबिसिंधु निहारी। कुसमय जानि न जानिन कीन्हि चिन्हारी॥१॥चिन्हारी॥<br>जय सच्चिदानंद जग पावन। अस कहि चलेउ मनोज नसावन॥<br>चले जात सिव सती समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता॥२॥कृपानिकेता॥<br>सतीं सो दसा संभु कै देखी। उर उपजा संदेहु बिसेषी॥<br>संकरु जगतबंद्य जगदीसा। सुर नर मुनि सब नावत सीसा॥३॥सीसा॥<br>तिन्ह नृपसुतहि कीन्ह नह परनामा। कहि सच्चिदानंद परधामा॥परधमा॥<br>भए मगन छबि तासु बिलोकी। अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी॥४॥रोकी॥</span><span class="doha"><br>दो०दो0-ब्रह्म जो व्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद। <br>सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत बेद॥५०॥वेद॥ 50॥</span><br><br><brpoem>