भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बासन्ती मनुहार / आशा कुमार रस्तोगी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम राधा का अमर प्रेम, हो कान्हा कि मनुहार तुम्हीँ,
तुम्हीँ व्योम की अभिलाषा, हो धरती का श्रंगार तुम्हीँ।

तुम्हीँ चपल चँचल चितवन, हो पूनम का भी चन्द्र तुम्हीँ,
नव कोपल सँग नव वसन्त, हो उपवन का सौभाग्य तुम्हीँ।

सुरभित सुमनों की तुम सुगन्ध, हो भ्रमर वृन्द का राग तुम्हीँ,
तुम कोयल की मधुर कूक, पी कहाँ पपीहा तान तुम्हीँ।

मादक पुष्पों की तुम मदिरा, मदमस्त पवन का मूल तुम्हीँ,
सरसों की हो स्वर्णिम आभा, स्वप्निल-सा सौम्य स्वरूप तुम्हीँ।

बहती नदिया कि थिरकन मेँ, हो निहित प्राकृतिक लाज तुम्हीँ,
निर्निमेष पर्वत माला का, धीर, अविचलित भाव तुम्हीँ।

पायल की झनकार तुम्हीँ, हो प्रणय-गीत का सार तुम्हीँ,
मन के घुँघरू का हो तुम स्वर, मेरी धड़कन का राग तुम्हीँ।

तुम्हीँ शाम की हो रँगत, प्रातः की मन्द बयार तुम्हीँ,
उष्ण मरूस्थल मेँ जलकण, सावन की मस्त फुहार तुम्हीँ।

तुम निज वीणा कि मधुरिम ध्वनि, प्रत्येक दृष्टि से इष्ट तुम्हीँ,
"आशा" के मन की प्रीति तुम्हीँ, हैँ शब्द भले निज, अर्थ तुम्हीँ...!