Last modified on 18 जुलाई 2020, at 19:03

बिछिया / रवीन्द्र भारती

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:03, 18 जुलाई 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रवीन्द्र भारती |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

फ़ुटपाथ पर सँवर रही हैं कचरा चुनने वाली लड़कियाँ
एक-दूसरे को हाथ में थमाकर आईना
बना रही हैं चोटी, लगा रही हैं किलिप
फुदक रही हैं मन-ही-मन ।

नहीं है कोई दीवाल दरवाज़ों और आँगन के बीच
नहीं हैं कुण्डियों से झूलती ज़ंजीरें
खुली राह में काली के ब्याह का बज रहा है ढोल
हो रही हुलिहुली ।

सरग-नरक के किस पिछवाड़े से उठाकर
लाती हैं वे ऐसा अपूर्व उल्लास
कचरा चुनते-चुनते कहाँ से चुन लेती हैं
इतनी मुहब्बत, इतनी बेफ़िक्री
कि हज़ार राहों की आतिशबाजियों की रोशनियाँ
थिरकते हुए लगती हैं बिखेरने !

भविष्य की चिन्ता में मुस्कराते दृश्यों से नज़र चुरानेवाले
कल्पना भी नहीं कर सकते
जिस आह्लाद के साथ पचासों अनाम लोग
काली के दूल्हे के साथ खा रहे हैं माछ-भात
पूरा फ़ुटपाथ जलतरंग की तरह बज रहा है
और लड़कियों की आँखों में चमक रही है
काली के पैरों की बिछिया ।