भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बिजली की तरह तेरी रुह से गु़ज़र जाऊँगा / शमशाद इलाही अंसारी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:56, 8 अक्टूबर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शमशाद इलाही अंसारी |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <poem> बिजली की ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बिजली की तरह तेरी रुह से गु़ज़र जाऊंगा,
हवा बन के मैं तेरी साँसों में ठहर जाऊंगा|

महफ़िलों में लोग पूछेंगे तुमसे जब मेरा अहवाल,
तेरी आँखों के कोयो से मैं पानी सा दरक जाऊंगा।

तेरी बेरुखी़,तेरी बेवफ़ाई, तेरी गै़रत तू जाने तेरा ईमान,
मैं शफ़्फ़ाक़ दरिया की तरह अजल से भी गु़ज़र जाऊँगा।

मेरे वुजूद पर न रख उँगली कि तू जल जाएगा,
मैं पिघला लोहा हूँ फ़िर किसी साँचे में ढ़ल जाऊंगा।

झूठे तेरे सब नाते रिश्ते झूठा तेरा है हर व्यौपार,
तेरे रंग में नहीं रंगा मैं, ख़ुद अपने ही रंग में जाऊंगा।

अब जितने भी हों सारे दे दे काँटे जो हैं तेरी झोली में,
और कोई चेहरा न झुलसे ये दाग़ भी तेरा मैं सह जाऊंगा।

चांदी के क़ाग़ज में लिपटा साथ था मेरा-तेरा, एक फ़रेब,
जागे इक दिन नींद से तू भी, ये एक दुआ मै कर जाऊंगा।

हक़-तल्फ़ी की ईटें चिन कर बना लिया महल जो तुमने,
अपने हिस्से का एक धक्का बिना दिए मैं कैसे जाऊँगा।

मुबारक हों तुझे तेरे मेवे और शहद के भरे प्याले,
रुखी-सूखी़ खाकर मैं भी तो ज़िन्दा रह जाऊंगा।

बहुत का़बिल दरबारी तेरे और दानिश्वर है तेरा वज़ीर,
देखकर मरघट में गिद्धों का डेरा मैं ख़ामोश कैसे जाऊंगा।

मबरुक तुझे हो ताज तेरा, फ़िक्र न करना "शम्स" की,
जर गया ना साथ किसी के मैं तो तन्हा ही जाऊंगा।
 

रचनाकाल: 12.09.2009