भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बिटिया हमारी / भारती पंडित

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


यूं मजबूरियों का बने ना तमाशा,
दो सिक्कों की खातिर कोई घर न तोड़ो
न तुम जान से खेलो,
ये रिश्तें न छीनो
ये कहता है इंसानियत का तकाजा,
किसी जिन्दगी का उजाला न छीनों

जो जन्मे हैं बेटा तो गूंजे है सरगम
वही घर में बिटिया के आने पे मातम
क्यों माता ही हाथों में धरती है खंजर
ये बिटिया ही तो घर को घर है बनाती
उसी से सुखों का निवाला न छीनों (१)

सुबह तो हुई पर ये कैसा नजारा
कहीं रोती बहुएँ, कहीं मरती बाला
क्यूं बनती हैं नारी सितम का निवाला
है जीने का हक़ तो उन्हें भी है आखिर
किसी से किसी का सहारा ना छीनों (२)