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बिन बरसे वापसी / शिशु पाल सिंह 'शिशु'

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तुम्‍हारे बिना, हमारे अंग-अंग पर बरसे अंगारे;
लपलपाती लूकों ने तीर-जहर के कस-कस कर मारे।
अवा—सी आग दहक कर जला रही थी, घट की परिभाषा;
उस समय जिला रही थी, सिर्फ़ तुम्‍हारे आने की आशा।

आसरा था तुमसे घनश्‍याम, मसीहा बन कर आओगे;
आखिरी जमुहाई के समय, सुधा का घूँट पिलाओगे।
रूद्र के जटा-जूट से मंजु सुरसरी धार बहाओगे;
कपिल के अभिशापों पर हरी माँगलिक दूब उगाओगे।

भरोसा था तुमसे हे देव! परोसा प्राणों को दोगे;
डुबा कर जल में ज्‍वालामुखी, हमारी आशीषें लोगे।
मगर यह कैसी उल्‍टी हवा लगी, विश्‍वास पलटते हो;
प्रेम-सागर के से अध्‍याय बिना ही पढ़े उलटते हो।

अभी के बरसे जल का मोल, सुधा से भी बढ़ जाएगा।
बाद में बरसी चाहे अमृत, मगर पानी कहलायेगा॥