Last modified on 19 मार्च 2017, at 12:53

बिहारी सतसई / भाग 42 / बिहारी

पल सोहैं पगि पीक रँग छल सोहैं सब बैन।
बल सौहैं कत कीजियत ए अलसौंहैं नैन॥411॥

पल = पलक। सोहैं = शोभते हैं। पगि = पगकर, शराबोर होकर। पीक रँग = लाल रंग। छल सोहैं = छल से भरी हैं। बल = जबरदस्ती। सौहैं = सामने। अलसौंहैं = अलसाये हुए।

तुम्हारी पलकें पीक के रंग से शराबोर होकर शोभ रही हैं-रात-भर जगने से आँखें लाल हो गई हैं और, तुम्हारी सारी बातें छल से (भरी) हैं। फिर, इन अलसाई हुई आँखों को जबरदस्ती सामने (करने की चेष्टा) क्यों कर रहे हो?


भये बटाऊ नेहु तजि बादि बकति बेकाज।
अब अलि देत उराहनौ अति उपजति उर लाज॥412॥

बटाऊ = बटोही, रमता जोगी, विरागी। बादि = व्यर्थ, बेकार। बेकाज = बेमतलब, निष्प्रयोजन। अलि = सखी। उराहनौ = उलहना।

प्रेम छोड़कर ये बटोही हो गये, फिर व्यर्थ क्यों निष्प्रयोजन बकती हो? अरी सखी! अब इन्हें उलहना देने में भी हृदय में अत्यन्त लाज उपजती है-बड़ी लज्जा होती है।

नोट - बटोही से भी कोई करता है प्रीत!
मसल है कि जोगी हुए किसके मीत॥-मीर हसन


सुभर भर्‌यौ तुव गुन-कननु पकयौ कपट कुचाल।
क्यौंधौं दार्‌यौ ज्यौं हियौ दरकतु नाहिन लाल॥413॥

मुभर भर्‌यौ = अच्छी तरह भर गया है। कननु = दानों से। पकयौ = पका दिया है। दारयौं = दाड़िम = अनार। दरकतु = फटकता है।

तुम्हारे गुण-रूपी दानों से अच्छी तरह भर गया है, और तुम्हारे कपट और कुचाल ने उसे पका भी दिया है; तो भी हे लाल! न मालूम क्यों अनार के समान मेरा हृदय फट नहीं जाता?

नोट - दाने भर जाने और अच्छी तरह पक जाने पर अनार आप-से-आप फट जाता है। हृदय पकने का भाव यह है कि कपट-कुचाल सहते-सहते नाकों दम हो गया है। असह्य कष्ट के अर्थ में ‘छाती पक जाना’ मुहावरा भी है।


मैं तपाइ त्रय-ताप सौं राख्यौ हियौ-हमामु।
मति कबहूँ आबै यहाँ पुलकि पसीजै स्यामु॥414॥

तपाइ = गर्म करके। त्रय-ताप = तीन ताप = कामाग्नि, विरहाग्नि और उद्दीपन-ज्वाला। हमामु = हम्माम, स्नानागार। मति = संभावना-सूचक शब्द, शायद। पुलकि पसीजै = रोमांचित और पसीने से भीजे हुए।

मैंने अपने हृदय-रूपी स्नानागार को तीन तापों से तपाकर (इसलिए) रक्खा है कि शायद कभी (किसी दूसरी प्रेमिका से समागम करने के पश्चात्) रोमांचित और पसीने से तर होकर कृष्णचन्द्र यहाँ आ जावें (तो स्नान करके थकावट मिटा लें)।

नोट - कृष्ण के प्रति राधा का उपालम्भ। जिस तरह हम्माम में तीन ओर से (छत से, नीचे से तथा दीवारों से) पानी में गर्मी पहुँचाई जाती है, उसी प्रकार मैंने भी अपने हृदय को उक्त तीन तापों से गर्म कर रक्खा है।


आज कछू औरैं भए छए नए ठिकठैन।
चित के हित के चुगुल ए नित के होहिं न नैन॥415॥

नए ठिकठैन छए = नये ठीक-ठाक से ठये, नवीन सजधन से सजे। चित के हित के = हृदय के प्रेम के। चुगुल = चुगलखोर। नित = नित्य।

नवीन सजधज से सजे आज ये कुछ और ही हो गये हैं। चित्त के प्रेम की चुगली करनेवाले ये नेत्र नित्य के-से नहीं हैं-जैसे अन्य दिन थे, वैसे आज नहीं हैं। (निस्संदेह आज किसी से उलझ आये हैं।)


फिरत जु अटकत कटनि बिनु रसिक सुरस न खियाल।
अनत-अनत नित-नित हितनु चित सकुचत कत लाल॥416॥

अटकत फिरत = समय गँवाते फिरते हो। कटनि = आसक्ति। खियाल = विचार, तमीज। अनत-अनत = अन्यत्र, दूसरी-दूसरी जगहों में। सकुचत = लजाते हो।

बिना आसक्ति के ही जो अटकते फिरते हो-जिस-तिस से उलझते फिरते हो-सो, हे रसिक! क्या तुम्हें रस का कुछ विचार नहीं है? नित्य ही जहाँ-तहाँ प्रेम करके, हे लाल! तुम मन में क्यो लजाते हो? (तुम्हारी यह घर-घर प्रीति करते चलने की आदत देखकर मुझे भी लज्जा आती है।)


जो तिय तुम मनभावती राखी हियै बसाइ।
मोहि झुकावति दृगनु ह्वै वहिई उझकति आइ॥417॥

तुम = तुम्हारी। मनभावती = प्रियतमा। झुकावति = चिढ़ाती है। दृगनु ह्वै = आँखों की राह से। वहिई = वही। उझकति = झाँकती है।

जो भी स्त्री तुम्हारी परम प्यारी है (और जिसे तुमने) हृदय में बसा रक्खा है, वही (तुम्हारी) आँखों की राह आ (मेरी तरफ) झाँक-झाँककर मुझे चिढ़ाती है।

नोट - नायिका अपनी ही सुन्दर मूत्ति को नायक की उज्ज्वल आँखों में प्रतिबिम्बित देख और उसे नायक के हृदय में बसीे हुई अपनी सौत समझकर ऐसा कहती है।


मोहि करत कत बावरौ करैं दुराउ दुरै न।
कहे देत रँग राति के रँग निचुरत-से नैन॥418॥

बावरी = पगली। दुराव = छिपाव। दुरै न = नहीं छिपता। राति के रँग = रात्रि में किये गये भोग-विलास।

मुझे क्यों पगली बना रहे हो? छिपाने से तो छिप नहीं सकता। ये तुम्हारे रंग-निचुड़ते-हुए से नेत्र-लाल रंग में शराबोर नेत्र-रात के (सारे) रंग कहे देते हैं (कि कहीं रात-भर जगकर तुमने केलि-रंग किया है।)


पट सौं पोंछि परी करौ खरी भयानक भेख।
नागिनि ह्वै लागति दृगनु नागबेलि रँग रेख॥419॥

पट = कपड़ा। परी करौ = दूर करो। खरी = अत्यन्त। भेख = वेष = रूप। दृगनु = आँखों में! नागबेलि = नाग वल्ल्ी, पान। रेख = लकीर।

कपड़े से पोंछकर दूर करो-मिटाओ। इसका वेष अत्यन्त भयावना है। (तुम्हारे नेत्रों में लगी हुई) पान की लकीर मेरी आँखों में नागिन के समान लग रही है (नागिन-सी डँस रही है।)

नोट - पर-स्त्री के साथ रात-भर जगने से नायक की आँखें लाल-लाल हो रही हैं। इसलिए क्रुद्ध होकर नायिका व्यंग्यबाण छोड़ रही है।


ससि-बदनी मोकौ कहत हौं समुझी निजु बात।
नैन-नलिन प्यौ रावरे न्याव निरखि नै जात॥420॥

ससि-बदनी = चन्द्रमुखी। मोको = मुझको। निजु = निजगुत, ठीक-ठीक। नलिन = कमल प्यौ = पिय। नै जात = नम जाते हैं, झुक जाते हैं।

हे प्रीतम! सच्ची बात मैंने आज समझी। मुझे आप चन्द्रवदनी कहते हैं (इसीलिए) आपके नेत्र (अपने को) कमल-तुल्य समझकर (मेरे मुखचन्द्र के सामने) झुक (संकुचित हो) जाते हैं।

नोट - रात-भर नायक दूसरी स्त्री के पास रहा है। प्रातःकाल लज्जावश नायिका के सामने उसकी आँखें नहीं उठतीं-झेंपती हैं। चन्द्रमा के साथ कमल अपनी आँखें बराबर नहीं कर सकता।