Last modified on 12 अप्रैल 2017, at 12:57

बीच मझधार के वो फँसा रह गया / दरवेश भारती

बीच मझधार के वो फँसा रह गया
जो किनारों को ही देखता रह गया

चुप्पियाँ, चुप्पियाँ ही थीं दोनों तरफ़
हाले-दिल अनकहा, अनसुना रह गया

हक़ की ख़ातिर जो मुंसिफ़ से तकरार की
फ़ैसला झूलता , झूलता रह गया

जब कभी संगदिल नेट् उड़ा यक-ब-यक
गुफ़्तगू का हसीं सिलसिला रह गया

कोशिशों से भी मंज़िल न जब मिल सकी
रह गये पाँव और रास्ता रह गया

बेवफ़ाई का ग़म था कुछ ऐसा कि जो
उम्र-भर सालता, सालता रह गया

जिसको आँखों में पाला किये दम-ब-दम
ख़्वाब 'दरवेश' वो दीद का रह गया