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बीमार मन / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


बीमार मन
सिंधड़ता है रोज़
बाँटता रोग
ईर्ष्या- द्वेष की सीली
काठ न जले
धुँआँ ही उगलती
नज़र न आए
खुद का भी चेहरा,
धुएँ के कोड़े
क्रुद्ध हो फटकारे
रुकना कहाँ
फेन मुँह से झरे
शब्दों का लोप
विवेक अधमरा
रात व दिन
अंगारों पर चले
औरों को दर्द ही दे
खुद भी पाए
रोगी का तन
औषध जब मिले
फूल- सा खिले
मनोरोगी कुपित
कभी चैन न पाए।
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