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बीसवीं सदी, इक्कीसवी सदी-6 / सुधीर सक्सेना

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वह देखो!
दौड़ता चला गया खरगोश
जाने पहचाने दड़बे से
अज़नबी दड़बे में
क्या पता, क्या होगा उसका हश्र?
इत्मीनान रखिये
सदी नहीं गुजरेगी कुलांचे भरती खरगोश सी
बीतते-बीतते बीतेगी वह
बीतेगी वह जैसे बीतती है घटनायें,
जैसे बीतते हैं लोग,
जैसे बीतीं थीं बीती हुई सदियां
बीतेगी वह
याद बन जायेगी पूरी सदी,
चली जायेगी काल की मंजूषा में
किसी धरोहर या नेमत की तरह।
पड़ी रहेगी वह
अदृश्य संदूक में,
पड़ी रहेगी वह
जैसे बंद अल्मारी में
पुराना अखबार,
अलग गंध, अलग रंग,
अपने वक्त का अलग स्वाद
अपने वक्त की जिजीविषा
वक्त का अवसाद
वक्त को डिस्प्ले करने का
अलग ही अंदाज़।
गलियारे के छोर पर
छोटे-छोटे डग भरती
मुस्काती है बीसवीं सदी
अकस्मात याद कर अपने पिटारे की नेमतें
सोचती है-
कितनी सदियां कैद हैं गुड़ीमुड़ी
पिटारे में
अपने-अपने गुन-अवगुन के साथ।
सोचती है
बीसवीं सदी
कैसा है काल-चक्र
चली जा रही है वह
पिटारे समेत
और भी बड़े पिटारे में
जाने हुए को जानने को
फिर एक बार पोरों पर
गिनती है वर्ष
फुसफुसाती है अपने ही कानों में-
बचे हैं, अभी बचे हैं
चार माह और दस वर्ष
अभी से पर हल्ला है
इक्कीसवी सदी में जाने का
पूरे दस बरसों को सिफ़र करता
शोरगुल है
ज़ेहाद है
इक्कीसवीं सदी में जाने का।
गो,
कुछ नहीं होते दस वर्ष
मायने नहीं दस के
बुदबुदाती है बीसवीं सदी
वाह, होते तो सिर धुनते
इस पर धराचार्य
शून्य की सत्ता से उपहास पर
इकाई से जुड़े शून्य के इस
अद्भुत चमत्कार पर।
कहने का
फ़क़त दस है, परंतु
इतिहास लिख जाता है
नये सिरे से
कोरी स्लेट पर।
लड़ने को दो विश्वयुद्ध
लड़े जा सकते हैं
अंतिम दशाब्दी के
क्षत-विक्षत सीने पर।
होने को
क्या नहीं हो सकता
दो खूंटियों के बीच तनी
इस दशाब्दी की रस्सी पर
चाहे तो
करतब देख लें इस पर
नट के, नटी के
चाहे तो
गांठ पर गांठ लगा दें
और बल डाल दें
चाहे तो
धज्जियां उड़ा दें
क्षुरों के वार से
चाहे तो
सभ्यता अपने खुरदुरे अभ्यस्त हाथों से
बंट ले इसे
नये सिरे से
होने को
क्या नहीं हो सकता
दस बरसों के अंतराल में।
अभी
दस घूंट बचे हैं
सदी के चषक में
पेश्तर उसके रीतेगा नहीं प्याला।
बाद दस बरस,
चार माह
रात के बारह बजे
गज़र बजेगा
पच्चीसवां घंटा नहीं,
अगला दिन नहीं
-बजेगी अगली सदी
लुप्त हो जायेगी
श्वेत बरोनियां
शिशु होकर भी
होगी वह परिपक्व
हाथ उठायेगी,
हंसेगी, कहेगी-
“पहचाना आपने?”
तत्काल चीन्हकर भी
हम याद करेंगे
पीछे छूट चुका
अपनी सदी को चेहरा
याद करेंगे उसकी देह-यष्टि,
उसका रूपरंग।
उसकी लुनाई में
खोजेंगे हम
अपनी सदी का नमक।
भरबांह भेटेंगे हम नई सदी से
हर्षातिरेक में
छलछलायेंगे नेत्र,
हठात, चिल्लायेगी सारी पृथ्वी-
‘‘यही है, यही है वह
इसी का था हमें इंतजार”
इस तरह जायेगी
बीसवीं सदी-
एक बूंद ढलेगी काल के पात्र में।
इस तरह आयेगी
इक्कीसवीं सदी-
एक बूंद चमकेगी ललाट पर।

(३१ अगस्त, ८९ से २७ अप्रैल, ९० भोपाल में)