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बीसवें साल में / सरोज परमार

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साँझ होते ही अँगड़ाई ले उठ बैठा है
दिन भर का ऊँघता बाज़ार।
रोशनी के उमड़ते सैलाब में बहते हुए
अकस्मात मुझे बहुत अँधेरा लगता है
मेरी कोख में युगों से रोता हुआ
अजन्मा सत्य चीखने लगता है।
भीड़ के गुच्छे की चुंधियाई आँखे
उस तक नहीं पहुँच पाती
जब-जब आम्र मंजरियों से
हवा गन्धायी है
तब तब मैं अपने बीसवें साल में लौटी हूँ।
झूमती गेहूँ की बालियाँ मेरी रग-रग में
मस्ती भर जाती है
कचनार की फूली डालियाँ आँखों में
शरबती रंग भर जाती है
पर मुझे यह चुहल रास नहीं आती।
तुम्हारे दिए हरसिंगार चुभने लगते हैं
मेरी हथेलियाँ पसीने से नहीं जाती हैं।
एक कुलबुलाहट सारे व्यक्तित्व को
आतंकित कर जाती है
और मैं.......
अपने मातृत्व को घायल कर देती हूँ।
रक्त सनी सत्य की लोथ
पथराई आँखों से देखती (मेरी ओर)
किसी कब्र में खो जाती है
मेरे दूधिया पैरों में कोई कील गाड़ जाता है
विषुवत रेखा पर ठहरी सोचती हूँ.......
'सृजन पीड़ा माँगता है'
मैंने वेदना से डर कर किसी सत्य की
भ्रूण हत्या की है
अब कोई सत्य मेरी कोख़ से
कभी जन्म नहीं लेगा।